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योगवाशिष्ठ।

हैं। जैसे वर्षाकाल में नदियाँ जल से पूर्ण होती हैं और मानसरोवर में सब हंस आन स्थित होते हैं तैसे ही असंसक्तचित्त पुरुष को दैवी सम्पदा प्राप्त होती है। जिस पुरुष को देहाभिमान बढ़ जाता है उसे विष की नाई जानो और जिसका देहाभिमान घट जाता है उसको अमृतरूप जानो। विष ज्यों ज्यों बढ़ता है त्यों त्यों मारता है और अमृत ज्यो ज्यों बढ़ता है त्यों त्यों अमर होता है। हे रामजी! जो पुरुष देहाभिमान को त्यागकर स्वरूप में संसक्त होता है वह सुखी होता है और जिसके हृदय में दृश्य का संग है उसको यह संसक्तरूपी अङ्गार जलावेगा। जिसके हृदय में संग नहीं वह असंगरूपी अमृत से सुखी होवेगा और चन्द्रमा की नाई शीतल मुक्तरूप होगा उसका अविद्यारूपी विसूचिका रोग नष्ट होकर वह शान्तरूप होगा।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे संसक्तविचारो
नाम त्रिषष्टितमस्मर्गः॥ ६३ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह जो मैंने तुमको उपदेश किया है इसको विचार करके अभ्यास करो और सर्वदाकाल सर्व स्थान और सर्व कर्मों के कर्त्ता चित्तको देहादिक में मत संसक्त कर केवल आत्मचेतन में स्थित करो। हे रामजी! किसी वस्तु को सत्य जानके चित्त न लगाओ। न आकाश में, न अधः में, न ऊर्ध्व में, न दिशा में, न बाहर, न भीतर, न प्राण में, न उर में, न मूर्धा में, न तालु में, न भौंहके मध्य में, न नासिका में, न जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति में, न तम में, न प्रकाश में, न श्याम में, न रक्त में, न पीत में, न श्वेत में, न स्थिर मैं, न चल में, न आदि में न अन्त में, न मध्य में, न दूर में, न निकट में, न वित्तादि अन्तःकरण में, न शब्द में, न स्पर्श, रूप, रस, गन्ध में और न कलना, अकलना में चित्त लगावे। सब ओर से चित्त को रोककर चेतनतत्त्व में विश्राम करो द्वैत को लेकर चेतनतत्त्व का आश्रय न करो। हे रामजी! जब सबसे निराश होगे और आत्मतत्त्व में स्थित होगे तब विगतसंग होंगे और जीव का जीवत्व चला जावेगा, केवल चिदात्मा होकर स्थित होंगे तब सब व्यवहार करो अथवा न करो, करते भी अकर्ता होगे अथवा इसका भी