पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७३१

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उपशम प्रकरण।

है तो उससे समुद्र को कुछ लेप नहीं होता तैसे ही मन के दुःख से मात्मा को क्षोभ नहीं होता। हे रामजी! जैसे जल और हंस का और जल और नौका का कुछ सम्बन्ध नहीं तैसे ही देह और आत्मा का कुछ सम्बन्ध नहीं। जैसे पहाड़ और समुद्र का सम्बन्ध नहीं, जैसे जल,पत्थर और काष्ठ एक ठौर रहते हैं परन्तु कुछ सम्बन्ध नहीं और जैसे जल और नौका का संसर्ग होता है तो जलकणके उठते हैं तैसे ही देह और आत्मा के संयोग से चित्तवृत्ति फुरती है। हे रामजी! जीव को दुःख संग से ही होता है। जहाँ अहं मम का अभिमान होता है वहाँ दुःख भी होता है जहाँ अहं मम का अभिमान नहीं वहाँ दुःख भी कुछ नहीं होता। जैसे मछली को जल में ममत्व होता है और उसके वियोग से कष्ट पाती हैं तैसे ही जिस पुरुष को देह में अहं मम भाव है वह बड़ा कष्ट पाता है और जिसको देह में अभिमान नहीं उसको दुःख नहीं होता। हे रामजी! ज्यों ज्यों मन से संसर्गता निवृत्त होती है त्यों त्यों भोगप्रवाह कष्ट नहीं देता जैसे जल से पत्थर को कष्ट नहीं होता और जैसे दर्पण में पर्वत का प्रतिबिम्ब होता है सो दर्पण को प्रतिबिम्ब का संग नहीं होता और कष्ट भी नहीं होता। तैसे ही जब देह से संसर्गभाव उठ जाता है तब कोई कष्ट नहीं होता। जैसे दर्पण को कुछ कष्ट नहीं होता तैसे ही आत्मा और जगत् की क्रिया है। हे रामजी! सर्वथा संवित्मात्र आत्मतत्त्व स्थित है वह शुद्ध है और द्वैतशब्द के फुरने में रहित है। जो उसमें स्थित है उसको द्वैतशब्द नहीं फुरता और जो अज्ञानी है उसको द्वैतकलना उठती है। हे रामजी! यह सब जीव अदुःखरूप हैं परन्तु ज्ञान से आपको दुःखी जानते हैं। जैसे स्थाणु में चोरभावना अविचार से होती है तैसे ही आत्मा में दुःख की भावना अविचार से होती है। यह जीव शब्दरूप है परन्तु कलना के वश से आपको सम्बन्धी जानता है। जैसे स्वप्न में अड़्गना बन्धन करती है और स्थाणु में वैताल भासता है और भय प्राप्त होता है तैसे ही अपनी कल्पना से जीव बन्धवान् होता है। हे रामजी! देह और आत्मा का सम्बन्ध असत्य है-जैसे जल और नौका का सम्बन्ध असत्य है। यदि जल का अभाव हो तो नौका को