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योगवाशिष्ठ।

हैं जिसमें जीवरूपी तृण आय कष्ट पाता है और बुद्धिरूपी पक्षिणी है जो वासनारूपी जाल से कष्ट पाती है। यह मैंने किया है, यह करती हूँ और यह करूँगी, इसी वासनारूपी जाल में बुद्धिरूपी पक्षिणी कष्ट पाती है-एक क्षण भी विश्रामवान् नहीं होती। हे भाई! इस चित्तरूपी कमल को राग-द्वेषरूपी हाथी चूर्ण करता है। यह मेरा सुहृद है, यह मेरा शत्रु है, यह 'अहं' 'मम' ही उसको मारता है। शुद्ध आत्मरूप को त्यागकर देहादिक अनात्मरूप में अहंभाव करता है और दीनता को प्राप्त होता है। जैसे राज्य से रहित राजा कष्ट पाता है तैसे ही आत्मभाव से रहित कष्ट पाता है और देहाभिमानी जन्ममरण के दुःख देखता है। जब देहाभिमान को त्याग करे तब कुशल हो अन्यथा कुशल नहीं होती।

इति श्री योगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे अन्तरप्रसङ्गो नामैकषष्टितमस्सर्गः॥६१॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार उन्होंने परस्पर कुशल प्रश्न किया। जब कुछ काल व्यतीत हुआ अभ्यास द्वारा उनको निर्मल ज्ञान प्राप्त हुआ और मोक्षपद को प्राप्त हुए। इससे हे रामजी! कल्याण के निमित्त ज्ञान के सिवा और मार्ग कोई नहीं। जिसका चित्त आशारूपी फाँसी से बँधा हुआ है वह संसारसमुद्र से पार नहीं हो सकता। इससे जीव संसारसमुद्र में गोते खाता है और ज्ञानवान् शीघ्र ही ऐसे तर जाता है जैसे गोपद लंघने में सुगम होता है। जैसे जिस पक्षी के पंख टूटे हैं सो समुद्र को नहीं तर सकता बीच में ही गिरके गोते खाता है और गरुड़ पंखों से शीघ्र ही लंघ जाता है, तैसे ही जिन पुरुषों के वैराग्य और अभ्यासरूपी पंख टूटे हैं वे संसारसमुद्र से पार नहीं हो सकते और जिन पुरुषों के वैराग्य और अभ्यासरूपी पंख हैं वे शीघ्र ही तर जाते हैं। हे रामजी! जो देह से अतीत महात्मा पुरुष चिन्मात्रतत्त्व में स्थित हुए हैं वे ऊँचे होकर देखते हैं और अपने आप को देख के हँसते हैं-जैसे सूर्य जनता को देख हँसता है अर्थात् जगत् की क्रिया से निर्लेप रहता है। जैसे रथ के टूटे से रथवाहक को कुछ खेद नहीं होता तैसे ही देह के दुःख से ज्ञानवान को कदाचित् खेद नहीं होता और मन के क्षोभ से भी आत्मतत्त्व में कुछ क्षोभ नहीं होता। जैसे तरङ्ग पर धूलि पड़ती