पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७१९

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उपशम प्रकरण।

हुआ और परस्पर कण्ठ लगाके मिले फिर परस्परभाव करके एक शासन पर चन्द्रमा और सूर्य के समान दोनों बैठ गये और आपस में कुशल पूबने लगे। प्रथम परघ बोला, हे मित्र! तेरे दर्शन से जैसे कोई चन्द्रमा के मण्डल में जा मानन्दवान् हो तैसे ही मैं आनन्दवान् हुआ हूँ। बहुत काल का जो वियोग होता है तो बहुत प्रीति बढ़ती है जैसे वृक्ष को ऊपर काटे से बढ़ता है तैसे ही प्रीति बढ़ती है। हे साधो! अब मैं भी ज्ञानवान् हुआ और तू भी माण्डव मुनि और आत्मा के प्रसाद से ज्ञान को प्राप्त हुआ है। हे राजन्! मेरा अभीष्ट प्रश्न यह है कि तू अब दुःखों से मुक्त होकर विश्राम को प्राप्त हुआ है। आत्मपद पाने की बढ़ाई मेरु आदिक से भी ऊँची है उसको तू प्राप्त हुआ है और परम कल्याणवान् आत्मारामी हुआ है। तुम राग द्वेष मल से रहित हुए हो-जैसे शरत्काल का आकाश निर्मल होता है-और सब कार्यों के करते भी समभाव में रहते हो। आधि-व्याधि ताप तुम्हारे दूर हुए हैं; तुम्हारी प्रजा भी विगतज्वर हुई है और धन, राज्य और माल में भी कुशल है। जैसे चन्द्रमा की किरणें शीतलता फैलाती हैं तैसे ही तुम्हारा यश दशों दिशाओं में फैल रहा है और तुम्हारा यश ग्रामवासी क्षेत्रों में लड़कियाँ गाती हैं। हे राजन्! तुम्हारे प्रजा, नौकर, पुत्र और कलत्र सब आधि-व्याधि से रहित हुए हैं। विषय पदार्थ आपाता-रमणीय हैं उनमें अब तुम्हारी प्रीति नहीं है और तृष्णारूपी सर्पिणी तुमको अब तो नहीं डसती। हे राजन्! तुम्हारी हमारी मित्रता हुई थी। समय पाकर तुम कहाँ रहे और हम कहाँ रहे, अब फिर इकट्ठे हुए हैं। बड़ा आश्चर्य है? ईश्वर की नीति जानी नहीं जाती, सुख से दुःख हो जाता है और दुःख गये से सुख हो जाता है। संसार की दशा आगमापायी है, संयोग का वियोग होता है और वियोग का संयोग होता है। तैसे ही तुम्हारा हमारा भी संयोग का वियोग हो गया था और अब फिर वियोग का संयोग हुआ है। बड़ा आश्चर्य है ईश्वर की नीति अद्भुतरूप है। सुरघ बोले, हे देव! परमात्मा देव की नीति जान नहीं सकते। वह महागम्भीर विस्मय में देनेवाली और दुर्ज्ञात है। तुम्हारा हमारा वियोग