पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७१७

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उपशम प्रकरण।

रहे। वह जगत् आत्मा का किञ्चनरूप जानता था और उसके सुख दुःख का भाव शान्त हो गया। जैसे सूर्य के उदय हुए अन्धकार नष्ट हो जाता है तैसे ही उसके सुख दुःख नष्ट हो गये थे। शोक, विलास करता, मत्त होता, स्थित होता, चलता श्वास लेता और पाँचों विषयों को ग्रहण करता वह राग द्वेष को प्राप्त न होता था। जैसे पत्थर में फुरना कुछ नहीं फुरता तैसे ही उसको कर्तृत्व भोक्तृत्व का मान कुछ न फुरा, सब कर्तव्य को करता भी निःसंग रहा जैसे जल में कमल अलेप रहता है तैसे ही वह राज्य में निर्लेप होकर जीवन्मुक्त हुआ। इस प्रकार जब बहुत काल बीता बत उसने शरीर का त्याग किया। जैसे बरफ का कणका सूर्य के तेज से जलमय हो जाता है तैसे ही उसका शरीर अपने भाव को त्यागकर आत्मतत्त्व में लीन हो गया। जैसे नदी समुद्र में लीन होती है और फिर भिन्न नहीं भासती तैसे ही सुरघ अपने भाव को त्यागकर उज्ज्वलभाव को प्राप्त हुआ और कलनारूपी मल को त्यागकर निर्मल ब्रह्म हुआ। जैसे शरत्काल का आकाश निर्मल होता है तैसे ही यह निर्मल चिदानन्द ज्योतिभाव को प्राप्त हुआ और जैसे घट फूटे से घटाकाश महाकाश हो जाता है तैसे ही वह पूर्णब्रह्म चिदानन्द तत्व हुआ।

इति श्री योगवाशिष्ठे उपशमनप्रकरणेसुरघवृत्तान्तसमाप्तिर्नाम
पञ्चपञ्चाशत्तमस्सर्गः ॥ ५५ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! तुम भी इसी दृष्टि का आश्रय करके विचरो तब सब भय मिट जावेगा। जैसे घोर तम में बालक भय पाता है और जब दीपक का प्रकाश होता है तब निर्भय होता है तैसे ही संसार- रूपी घोरतम में आया पुरुष दुःख पाता है और जब ज्ञानरूपी दीपक उदय होता है तब निर्भय हो जाता है। हे रामजी! जब आत्म विचार में कुछ भी मनुष्य का चित्त विश्राम पाता है तब उस विश्राम का आश्रयकर वह संसारसमुद्र से निकल जाता है, जैसे गढ़े में गिरे और तृण का वृक्ष हाथ लगे तो भी उसके आश्रय से निकल आता है। हे रामजी! यह पावन दृष्टि मैंने तुमसे कही है इसको चित्त में विचारो और परस्पर मिलकर उदाहरण के साथ अभ्यास कर नित्य एक समाधि में स्थित हो और