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योगवाशिष्ठ।

इन दोनों में श्रेष्ठ कौन है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! प्रथम समाधि का लक्षण सुनो कि समाधि किसको कहते हैं और व्युत्थान क्या है। यह गुणों का समूह अहंकार से लेकर पंच तत्त्वगुणात्मक है। जो इनको अनात्मरूप देखता है, आपको केवल इनका साथी चैतन्य जाना है और स्वाभाविक जिसका चित्त शीतल है उसको समाधि कहते हैं। जो मैत्री, करुणा, अमान्यता आदिक गुणों में स्थित हुआ है और जिसका मन आत्मविषय से शान्ति को प्राप्त होता है उसको समाधि कहते हैं। हे रामजी! जिसका ऐसा निश्चय होता है कि मैं शुद्ध चिदानन्दस्वरूप दृश्य के सम्बन्ध से रहित हूँ वह चाहे वन में रहे अथवा गृह में रहे दोनों स्थान उसको तुल्य हैं और वे दोनों पुरुष तुल्य हैं। अन्तःकरण का शीतल होना बड़े तपों का अनन्त फल है। हे रामजी! जो इन्द्रियों का शमन करके बैठा है और मन से जगत् के पदार्थों की चिन्तना करता है उसकी समाधि मिथ्या है। वह उन्मत्त की नाई नृत्य करता है। और जिसके मन में कोई वासना नहीं और व्यवहार करता है उसको बुद्धिमानों की समाधि के तुल्य जानो। कोई ज्ञानी व्यवहार करता है और कोई ज्ञानवान् व्यवहार को त्यागकर वन में समाधि लगाकर स्थित हो बैठा है पर दोनों निश्चय से परमपद में प्राप्त होते हैं-इसमें संशय नहीं। ज्ञानवान् निर्वाह हेतु पुरुषार्थ करता भी दृष्ट आता है तो भी अकर्ता है और अज्ञानी जो कर्ता भी नहीं परन्तु वासना से कर्तव्यभाव को प्राप्त होता है। जैसे कोई पुरुष कथा सुनने बैठा हो और उसका मन किसी और ठौर निकल गया हो तो सुनता भी नहीं सुनता, तैसे ही ज्ञानवान् को चित्त आत्मपद की ओर लगा है इससे वह कर्ता भी नहीं कर्ता, क्योंकि उसको कर्तृत्व का अभिमान नहीं होता। घन वासना सहित ज्ञानी सब इन्द्रियों को स्थित करके सो गया हो तो उसको स्वप्न आवे और पर्वत से गढ़े में आपको गिरा देखता है और कष्टवान् होता है। इससे जहाँ वासना है वहाँ क्षोभ भी है और जहाँ कुछ वासना नहीं वहाँ शान्ति है। हे रामजी! जिसमें कर्तृत्व का अभिमान नहीं और निश्चय से आपको अकर्ता जानता है उसको केवली भाव से समाधि में स्थित जानो और जिसमें