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योगवाशिष्ठ।

एक तागा अनेक मणियों को इकट्ठा करता है तैसे ही सबको इकट्ठा करके तू अहं अहं करता है। तू मिथ्या रागद्वेष करता है इससे तू शीघ्र ही सब इन्द्रियों को लेकर निर्वाण हो जिससे तेरी जय हो।

इति श्री योगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे उद्दालकविचारोनामाष्ट-
चत्वारिंशत्तमस्सर्गः ॥ ४८ ॥

उद्दालक बोले, आत्मा जो सूक्ष्म से सूक्ष्म है, स्थूल से स्थूल है और शुद्ध, निर्विकार और शान्तरूप है सो मैं अचैत्य चिन्मात्र हूँ मेरे में कोई विकार नहीं और जितने जन्म-मरण आदिक विकार भासते हैं वे आत्मा में चित्त ने कल्पे हैं, वास्तविक आत्मा में कोई विकार नहीं। जन्म उसको कहते हैं जो पहले न हो और पीछे उपजे। आत्मा तो आगे ही सिद्ध है फिर जन्म कैसे कहिये? और मृत्यु वह कहाती है जो पीछे न हो पहले का अभाव हो जावे, पर आत्मा तो जगत् के अन्त में भी सिद्ध है इससे सब विकारों से रहित है फिर मृत्यु रूप प्रध्वंसाभाव कैसे कहिये? देह के आदि, मध्य, अन्त, तीनों कालों में आत्मा सिद्ध है, इससे वह सब विकारों से रहित है और चित्त के संयोग से विकारों सहित भासता है। हे चित्त! तेरे संयोग से मैंने इतने भ्रम पाये थे और शरीर में व्यर्थ अहं अहं होता है सो जाना नहीं जाता कि कौन है। शरीर तो रक्त-मांस का पिणड है, इन्द्रियाँ मन आदिक सब जड़ हैं तो अहं करनेवाला कौन है? जब अहं होता है तब भाव-अभाव पदार्थ को ग्रहण करता है पर जहाँ अहं का अभाव है तहाँ भाव-अभाव कैसे हो? अहंकार झूठ है, इन्द्रियाँ अपने- अपने विषयों का ग्रहण करती हैं और अनादिक भी अपने स्वभाव में स्थित हैं। यह अहं करनेवाला नहीं पाया जाता कि कौन है? अहं का रूप कुछ नहीं इससे निश्चय हुआ कि सब पदार्थ झूठ हैं। अहंकार का ग्रहण करनेवाला भी झूठ है और जितने पदार्थ हैं वे अहंकार से होते हैं। मैं इससे मिलकर देह इन्द्रियों के इष्ट-अनिष्ट में क्यों राग-द्वेष करूँ? इसका और मेरा कुछ संयोग नहीं मैं तो निर्लेप और अद्वैत आत्मा हूँ संयोग किससे हो? मैं भाव रूप ब्रह्म हूँ मेरा संयोग किससे हो? यह तो सब असत्यरूप है और जो कहिये देहादिक हैं तो भी संयोग नहीं बनता-