पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६८९

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उपशम प्रकरण।

आत्माभिमान और पुत्र, दारा आदिक में ममत्व से चित्त बड़ा हो जाता है और अहंकाररूपी विकार, ममतारूपी कीड़ा और यह मेरा इत्यादि भावना से चित कठिन हो जाता है। चित्तरूपी विष का वृक्ष है जो देहरूपी भूमि पर लगा है, संकल्प विकल्प इसके टास हैं, दुर्वासनारूपी पत्र हैं और सुखदुःख आधिव्याधि मृत्युरूपी इसके फल हैं, अहंकाररूपी कर्म जल है उसके सींचने से बढ़ता है और काम भोग आदि पुष्प हैं। चिन्तारूपी बड़ी बेलि को जब विचार और वैराग्यरूपी कुठार से काटे तब शान्ति हो-अन्यथा शान्ति न होगी। हे रामजी! चित्तरूपी एक हाथी है उसने शरीररूपी तालाब में स्थित होकर शुभ वासनारूपी जल को मलीन कर डाला है और धर्म, सन्तोष, वैराग्यरूपी कमल को तृष्णारूपी सूँड़ से तोड़ डाला है। उसको तुम आत्मविचाररूपी नेत्रों से देख नखों से छेदो। हे रामजी! जैसे कौवा अपवित्र पदार्थों को भोजन करके सर्वदा काँ काँ करता है तैसे ही चित्त देहरूपी अपवित्र गृह में बैठा सर्वदा भोगों की ओर धावता है, उसके रस को ग्रहण करता है और मौन कभी नहीं रहता। दुर्वासना से वह काक की नाई कृष्णरूप है-जैसे काक के एक ही नेत्र होता है तैसे ही चित्त एक विषयों की ओर धावता है। ऐसे अमङ्गलरूपी कौवे को विचाररूपी धनुष से मारो तब सुखी होगे। चित्तरूपी चील पखेरू है जो भोगरूपी मांस के निमित्त सब ओर भ्रमता है। जहाँ अमङ्गलरूपी चील आती है वहाँ से विभूति का अभाव हो जाता है। वह अभिमानरूपी मांस की ओर ऊँची होकर देखती है और नम्र नहीं होती। ऐसा अमङ्गलरूपी चित्त चील है उसको जब नाश करो तब शान्तिमान् होगे। जैसे पिशाच जिसको लगता है वह खेदवान् होता है और शब्द करता है, तैसे ही इसको चित्तरूपी पिशाच लगा है और तृष्णारूपी पिशाचिनी के साथ शब्द करता है उसको निकालो जो आत्मा से भिन्न अभिमान करता है। ऐसे चित्तरूपी पिशाच को वैराग्यरूपी मन्त्र से दूर करो तब स्वभावसत्ता को प्राप्त होगे। यह चित्तरूपी वानर महाचञ्चल है और सदा भटकता रहता है, कभी किसी पदार्थ में धावता है-जैसे वानर जिस वृक्ष पर बैठता है उसको ठहरने नहीं देता। हे रामजी! चित्तरूपी