पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६८०

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योगवाशिष्ठ।

एक चाण्डाल आया और हाथी ने जब उस चाण्डाल को शीश पर चढ़ा लिया तब और विचार किसी ने न किया और उसको राजतिलक दिया। आठवर्ष पर्यन्त वह राज करता रहा पीछे जब उसके बान्धव आये और उससे चर्चा करने लगे तब सहेलियों ने ऊपर से देखा कि यह चाण्डाल है। ऐसे देख उन्होंने उसका त्याग किया और विचारवान् लोग जो उसके साथ चेष्टा करते थे वे उसे चाण्डाल जानकर जल मरे और वह राजा भी आपको धिक्कार कर जल मरा। अब उसको बारहवर्ष मृत्यु पाये व्यतीत हुए हैं। हे रामजी! इस प्रकार सुनके गाधि ब्राह्मण आश्चर्य को प्राप्त हुआ कि कहाँ मैं जल में स्थित था और कहाँ इतनी अवस्था देखी। ऐसे विचार करता था कि इतने में पूर्व का वृत्तान्त स्मरण आया कि यह आश्चर्य भगवान् की माया है। मैंने वर माँगा था इस माया से इतना भ्रम देखा है। यह आश्चर्य है कि यहाँ दो मुहूर्त बीते हैं और वहाँ स्वप्नभ्रम की नाई इतना काल मुझको भासित हुआ और सत्यसा स्थित हुआ है सो बड़ा आश्चर्य है। इससे संशय निवृत्त करने के निमित्त फिर उन विष्णुजी का ध्यान करूँ जिनकी माया से मैंने इतना भ्रम देखा है, और कोई इस संशय को दूर नहीं कर सकता। हे रामजी! इस प्रकार विचारकर गाधि ब्राह्मण फिर पहाड़ की कन्दरा में जाकर तप करने लगा और केवल एक अञ्जली जल पान करे और कुछ भोजन न करे। इस प्रकार डेढ़ वर्ष पर्यन्त उसने तप किया तब त्रिलोकी के नाथ विष्णु भगवान् प्रसन्न होकर उसके निकट आये और कहा, हे ब्राह्मण! मेरी माया को देख जो जगत्जाल की रचनेवाली है। अब और क्या इच्छा करता है? हे रामजी! जब विष्णु भगवान् ने ऐसे कहा तब ब्राह्मण इस प्रकार बोला जैसे मेघ को देखकर पपीहा बोलता है। हे भगवन्! तेरी माया तो मैंने देखी परन्तु एक संशय मुझको है कि यह जो स्वप्नभ्रम की नाई मैंने देखा इसमें काल की विषमता कैसे हुई कि यहाँ दो मुहूर्त व्यतीत हुए हैं और वहाँ चिरकालपर्यन्त भ्रमता रहा और उन झूठे पदार्थों को जाग्रत् में प्रत्यक्ष कैसे देखा? श्रीभगवान् बोले, हे ब्राह्मण! और कुछ नहीं तेरे चित्त ही का भ्रम है। जिसके चित्त में तत्त्व की