पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६७६

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योगवाशिष्ठ।

होकर उसने तुझे बहुत धन दिया होगा। अथवा किसी और धनी ने तुझसे प्रसन्न होकर मन्दिर और धन दिया होगा। हे रामजी! इस प्रकार वह चाण्डाल मुख से कहता और भुजा फैलाता इसके सम्मुख चला भौर यह नेत्रों और हाथों से उसको संकेत करे कि चुप रह, पर वह चाण्डाल कुछ न समझे सम्मुख होकर चला ही आवे। ज्यों-ज्यों वह पास आता था त्यों-त्यों राजा की कान्ति घटती जाती थी कि इतने में झरोखों में सहेलियों ने देखा और देखकर विचार किया कि यह राजा चाण्डाल है। ऐसे विचारकर वे महाशोक को प्राप्त हुई और कहने लगीं कि हमको बड़ा पाप हुआ कि इसके साथ हमने स्पर्श और भोजन किया। इस शोक से सबकी कान्ति नष्ट हो गई जैसे बरफ पड़ने से कमलपंक्ति की कान्ति जाती रहती है और जैसे वन में अग्नि लगने से वृक्षों की कान्ति जाती रहती है तैसे ही उनकी कान्ति जाती रही। सब नगरवासी भी यह सुनकर शोकवान हुए और हाय-हाय शब्द करने लगे। जब वह चाण्डाल राजा अपने अन्तःपुर में आया तो उसको देख करके सब भागे और निकट कोई न आता था। जैसे पर्वत में अग्नि लगे तो वहाँ से पशु-पक्षी भाग जाते हैं तैसे ही चाण्डाल राजा के निकट कोई न आवे। उस देश में जो बुद्धिमान पण्डित थे उन्होंने विचार किया कि बड़ा अनर्थ हुआ जो इतने काल तक चाण्डाल राजा से जिये। हमको बड़ा पाप लगा है इसलिए इस पाप का और पुरश्च- रण कोई नहीं, हम सब ही चिता बनाके अग्नि में प्रवेश कर जल मरेंगे तब यह पाप निवृत्त होगा। हे रामजी! ब्राह्मण और क्षत्रियों ने यह विचार करके चिता बना पुत्र, कलत्र और बान्धवों को छोड़कर चिता में प्रवेश करने लगे और जैसे दीपक में पतङ्ग प्रवेश करें तैसे ही जलने लगे। जैसे आकाश में तारे दृष्ट आवें तैसे ही चिता का अनेक चमत्कार दृष्ट आता था और धुवें से अन्धकार हो गया। कोई धर्मात्मा मनुष्य अपनी इच्छा से जलें और जो अपनी इच्छा से न जलें उनको और ले जलावें। चाण्डाल राजा ने विचारा कि मुझ एक के निमित्त इतने नगरवासी व्यर्थ जलते हैं, इस संसार में उसका जीना श्रेष्ठ है जिसमें