पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६७४

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योगवाशिष्ठ।

रहती है। जैसे पवन के ठहरे से वृक्ष अचल हो जाते हैं तैसे ही अङ्ग अचल हो गया और होठ फटकर विरस हो गये मानो अपने जीने को हँसते हैं। माता गाधि को पकड़े बैठी रही और सब परिवारवाले ऐसे इकट्ठे हुए जैसे वृक्षपर पक्षी आन इकट्ठे होते हैं और जैसे पुल के टूटे जल चलता है तैसे ही रुदन करते हैं। फिर बान्धव लोग कहने लगे कि अब यह अमङ्गलरूप है, इसको जलाना चाहिये। ऐसे कहकर उसे सब जलाने ले चले और चिता में डालके जला दिया और फिर अपने गृह में आकर क्रियाकर्म किया। हे रामजी! उसके उपरान्त वह ब्राह्मण एक देश में चाण्डाल हुआ। उस देश में एक चाण्डालों का ग्राम था वहाँ उसने एकचाण्डाली के गर्भ में, श्वान की विष्ठा में कृमिवत् प्रवेश हुए देखा और समय पाकर भग से बाहर निकला-जैसे पक्का फल वृक्ष से गिरता है, तो वहाँ वह बहुत सुन्दर बालक जन्मा और चाण्डाली इससे प्रीति करने लगी। इस प्रकार दिन दिन बढ़ने लगा जैसे छोटा वृक्ष बढ़ जाता है। निदान वह बारह वर्ष का होके फिर सोलह वर्ष का हुआ तब श्वानों को साथ लेकर वन में जावे और मृगों को मारे और इसी प्रकार बहुत स्थानों में विचरे। फिर उसका विवाह हुआ तब उसने यौवन अवस्था को यौवन में व्यतीत किया और बहुत बड़ा कुटुम्बी हुआ। फिर जब वृद्ध होकर शरीर जर्जरीभूत हो गया तो तृणों की कुटी बनाकर जा रहा- जैसे मुनीश्वर रहते हैं। दैवशात् वहाँ दुर्भिक्ष पड़ा और इसके बान्धव क्षुधा से मरने लगे तब वहाँ से अकेला निकला और बहुतेरे स्थान लाँघता हुआ कान्त देश में पहुँचा। उस सुन्दर देश का राजा मर गया था और उसके मन्त्रियों ने एक बड़े हाथी को इस निमित्त छोड़ा था कि जो कोई पुरुष इसके मुख से लगे उसको राजा कीजिये यह राजमार्ग में चला जाता था उस हाथी को देखा कि बहुत सुन्दर चरणों से सुमेरु पर्वतवत् चला आता है। जब निकट आया तब उसने इसको शीश पर ऐसे चढ़ा लिया जैसे सूर्य को सुमेरु शीश पर बैठा ले। इसके हाथी पर आरूढ़ होते ही नगारे और तुरियाँ बजने लगे और बड़े शब्द होने लगे- मानो प्रलय काल के मेघ गरजते हैं, भाट आादिक आनकर