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उपशम प्रकरण।

और चित्त को आत्मविचार में लगा जो कुछ किसी को प्राप्त होता है वह अपने पुरुषार्थ से होता है, पुरुषार्थ बिना नहीं होता। अपने पुरुषार्थ प्रयत्न से इन्द्रियरूपी पर्वत को लाँघे तो फिर संसारसमुद्र से तर जावे और तब परमपद की प्राप्ति हो। जो पुरुष के प्रयत्न बिना जनार्दन मुक्ति दें तो मृगपक्षियों को क्यों दर्शन देकर उद्धार नहीं करता जो गुरु अपने पुरुषार्थ बिना उद्धार करते तो अज्ञानी अविचारी ऊँट, बैल आदिक पशुओं को क्यों नहीं कर जाते। इससे विष्णु, गुरु इत्यादि और किसी के पाने की इच्छा बुद्धिमान् नहीं करते हैं। अपने मन के स्वस्थ किये बिना परम सिद्धता की प्राप्ति महात्मा पुरुष नहीं जानते। जिन्होंने वैराग्य और अभ्यास से इन्द्रियरूपी शत्रु वश किये हैं वे अपने आपसे उसको पाते हैं और किसी से नहीं पाते। हे रामजी! आपसे अपनी आराधना और अर्चना करो, आपसे आपको देखो और आपसे आपमें स्थित रहो। शास्त्र विचार से रहित मूढों की प्रकृति के स्थिति के निमित्त वैष्णव भक्ति कल्पी है प्रथम जो अभ्यास यत्न का सुख कहा है उससे जो रहित पुरुष है उसको गौणपूजा का क्रम कहा है, क्योंकि उसने इन्द्रियों को वश नहीं किया और जिसने इन्द्रियों को वश किया उसको भेदपूजा से क्या प्रयोजन है। विचार और उपशम बिना भी विष्णुभक्ति सिद्ध नहीं होती और जब विचार और उपशम संयुक्त हुआ तब कमल और पाषाण में क्या प्रयोजन है। इससे विचार संयुक्त होकर आत्मा का आराधन करो, उसकी सिद्धता से तुम सिद्ध होगे जिसने उसको सिद्ध नहीं किया वह वन गर्दभ है जो प्राणी विष्णु के आगे प्रार्थना करते हैं वे अपने चित्त के आगे क्यों नहीं करते? सब जीवों के भीतर विष्णुजी स्थित हैं उनको त्यागकर जो बाहर के विष्णुपरायण हो जाते हैं वे बुद्धिमान् नहीं। हृदयगुफा में जो चेतनतत्त्व स्थित है वह ईश्वर का मुख्य सनातन वपु है और शंख, चक्र, गदा, पद्म जिसके हाथ में है वह आत्मा का गौणवपु है। जो मुख्य को त्यागकर गौण की ओर धावते हैं वे विद्यमान अमृत को त्यागकर जो साधन से सिद्ध हो उसकी प्राप्ति निमित्त यत्न करते हैं। हे रामजी! मनरूपी हाथी को जिस पुरुष ने आत्मविवेक