पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६६८

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योगवाशिष्ठ।

स्तुति की। इस प्रकार अभिषेक देकर मधुसूदन बोले, हे निष्पाप! जब तक सुमेरु के धरनेवाली पृथ्वी और सूर्य चन्द्रमा का मण्डल है तबतक तू इष्ट अनिष्ट में समबुद्धि, वीतराग और क्रोध से रहित होकर राजभोग और राज्य की पालना कर। तुझको पूर्ण भूमिका प्राप्त हुई है उसमें स्थित होकर जैसे प्राप्त हो तैसे ही, हर्ष, शोक और उद्वेग से रहित होकर विचरो। हेयोपादेय से रहित हो तू बन्धवान् न होगा। संसार की स्थिति तूने सब देखी है और सबको जानता है अब मैं तुझको क्या उपदेश करूँ। तू राग द्वेष से रहित होकर राज भोग, अब दैत्यों का रुधिर धरती पर न पड़ेगा अर्थात् देवताओं के साथ विरोध न होगा। भाज से देवता और दैत्यों का संग्राम गया। जैसे मन्दराचल से रहित क्षीरसमुद्र शान्तिमान् हुआ था तैसे ही सब जगत् स्वस्थ रहेगा। मोहरूपी तम तेरे हृदय से दूर हुआ है और सदा प्रकाशस्वरूप लक्ष्मी हुई है और अनन्त विलासों को राजलक्ष्मी से भोगता आत्मपद में स्थित रह।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे प्रह्लादाभिषेकोनामैक
चत्वारिंशत्तमस्सर्गः॥ ४१ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार कहकर मुण्डरीकाक्ष परिवार संयुक्त चले मानो दूसरी संसार की रचना दैत्य के मन्दिर से चला है। तिस पीछे प्रह्लाद ने पुष्पाञ्जलि दी और क्रम से क्षीरसमुद्र में पहुँचे और देवताओं को विदा करके आप शेषनाग के आसन पर जैसे श्वेतकमल पर भँवरा बैठे तैसे स्वस्थ होकर बैठे। हे रामजी! यह दृष्टि अज्ञान के सम्पूर्ण मल के नाश करनेवाली है। प्रह्लाद को बोध की प्राप्ति की जो अवस्था मैंने तुमसे कही है वह चन्द्रमा के मण्डलवत् शीतल है। जो मनुष्य बड़ा पापी हो और इसको विचारे तो वह भी शीघ्र ही परमपद को प्राप्त हो और जो पाप से रहित है उसकी क्या वार्त्ता कहिये केवल सम्यक् विचार करके पाप नष्ट हो जाता है। वह कौन है जो इन वाक्यों को विचार के परमपद को न प्राप्त हो। हे रामजी! अज्ञानरूप पाप इसके विचार से नष्ट हो जाते हैं और पापों का कारण जो अज्ञान है उसका नाश करनेवाला यह विचार है-इससे विचार का त्याग कदाचित् न करो। यह जो प्रह्लाद