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योगवाशिष्ठ।

उसमें जीवरूपी पक्षी फँसते हैं सो फँसे हुए शान्ति नहीं पाते। हे मुनीश्वर! यह तो सब नाशरूप पदार्थ हैं इनमें आश्रय किसका करूँ कि जिसमें सुख हो। यह तो स्थावर जङ्गम जगत् सब काल के मुख में है यह सब नाशरूप मुझको दृष्टि आता है, इससे जो निर्भय पद हो सो मुझको कहिए।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैगग्यप्रकरणे कालजुगुप्सावर्ण
न्ननामविंशतितमस्सर्गः॥२०॥

श्रीरामजी बोले कि हे मुनीश्वर! जितने पदार्थ भासते हैं वह सब नाश रूप हैं तो मैं किसकी इच्छा करूँ और किसका आश्रय करूँ? इनकी इच्छा करनी मूर्खता है। जितनी चेष्टा अज्ञानी करता है वह सब दुःख के निमित्त है और जीने में अर्थ की सिद्धि कुछ नहीं है, क्योंकि बालक अवस्था में मूढ़ता रहती है, कुछ विचार नहीं रहता। जब युवावस्था आती है तब मूर्खता से विषय को सेवता है और मान मोहादि विकारों से मोहा जाता है, उसमें कुछ विचार नहीं होता और स्थिर भी नहीं रहता, दीन का दीन रह के विषय की तृष्णा करता है, शान्ति नहीं पाता। हे मुनीश्वर! आयुष्य महाचञ्चल है और मृत्यु तो निकट है, उसमें अन्यथा भाव नहीं होता। मुनीश्वर! जितने भोग हैं वे रोग हैं, जिसको सम्पदा जानते हैं वह आपदा है, जिसको सत्य कहते हैं वह असत्यरूप है, जिन स्त्री, पुत्रादिकों को मित्र जानते हैं वह सब बन्धन के कर्ता हैं और इन्द्रियाँ महाशत्रुरूप हैं। वह सब मृगतृष्णा के जलवत् हैं, यह देह विकाररूप है, मन महाचश्चल और सदा अशान्तरूप है और अहङ्कार महानीच है, इसने ही दीनता को प्राप्त किया है। इससे जितने पदार्थ इसको सुखदायक भासते हैं वह सब दुःख के देनेवाले हैं इससे कदाचित शान्ति नहीं होती। इसी कारण मुझको इनकी इच्छा नहीं। यद्यपि यह देखनेमात्र सुन्दर भासते हैं पर इनमें सुख कुछ नहीं और स्थिर न रहेंगे। जैसे समुद्र में नाना प्रकार के तरंग भासते हैं, पर वह सब बड़वाग्नि से नाश होते हैं वैसे ही यह पदार्थ भी नष्ट हो जाते हैं। मैं अपनी आयु में कैसे आस्था करूँ? हे मुनीश्वर! बड़े समुद्र, सुमेरु, राक्षस, दैत्य, देवता, सिद्ध, गन्धर्व, पृथ्वी, अग्नि, पवन, यम, कुबेर, वरुण, इन्द्र, ध्रुव, चन्द्रमा और बड़े ईश्वर जगत् के कर्ता, ब्रह्मा,