पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६५१

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६४५
उपशम प्रकरण।

अज्ञान नष्ट हो जाता है और जितनी आपदाएँ हैं उनका कष्ट दूर हो जाता है। आत्मा के प्राप्त हुए आत्मामय हो जाता है और वह विस्तृतरूप आत्मा दीपकवत् साक्षीभूत होता है। जगत् की स्थिति में भोगों से राग उठा है, सब ओर से आत्मतत्त्व का प्रकाश भासता है और भीतर शान्तरूप सबको अनुभव करनेवाला सब देहों में मैं स्थित हूँ। जैसे मिरचों में तीक्ष्णता स्थित है तैसे ही सब जगत् के भीतर बाहर मैं व्याप रहा हूँ। जो कुछ जगत् के पदार्थ भासते हैं उन सब में ईश्वररूप सत्ता सामान्य स्थित है, आकाश में शून्यता, वायु में स्पन्दता, तेज में प्रकाश, जल में रस, पृथ्वी में कठोरता, चन्द्रमा में शीतलतारूप वही है और सब जगत् में अनुस्यूत एक आत्मतत्त्व ही व्याप रहा है। जैसे बरफ में श्वेत, और पुष्पों में गन्ध है तैसे ही सब देहों में आत्मा व्यापक है। जैसे सर्वगत काल है और सर्वव्यापक आकाश है तैसे ही सब जगत् में आत्मा व्यापक है। जैसे राजा की प्रभुता सबमें होती है तैसे ही मुझसे भिन्न और कोई कलना नहीं है जैसे धूलि को पकड़ के आकाश को स्पर्श नहीं कर सकते, कमलों को जल स्पर्श नहीं करता और पाषाण को स्फुरणरूप स्पर्श नहीं करना तैसे ही मेरे साथ किसी का सम्बन्ध नहीं स्पर्श करता। सुख दुःख का सम्बन्ध देह को होता है यदि देह चिरकाल रहे अथवा अबहीं नष्ट हो तो मुझको लाभ हानि कुछ नहीं जैसे दीपक की प्रभा रज्जु से नहीं बाँधी जाती तैसे ही आत्मा किसी से बाँधा नहीं जाता, सब पदार्थों के ग्रहण में अबन्धरूप है। जैसे आकाश किसी से बाँधा नहीं जाता और मन किसी से रोका नहीं जाता तैसे ही परमात्मा को देह इन्द्रिय का सम्बन्ध वास्तव में नहीं होता। यदि शरीर के टुकड़े हो जावें तो भी आत्मा का नाश नहीं होता-जैसे घट फूटे से दूध आदिक पदार्थ नहीं रहता परन्तु आकाश कहीं नहीं जाता वह ज्यों का त्यों ही रहता है तैसे ही देह के नाश हुए प्राणकला निकल जाती है आत्मा का कुछ नाश नहीं होता और पिशाच की नाई उदय होकर भासता है। जिसका नाम मन है उस मन से जगत् भासित हुआ है और उसी में जड़ शरीर के नाश का निश्चय हुआ है हमारा क्या नाश होता है? जिसके