पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६३८

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योगवाशिष्ठ।

प्रलयकर्ता वही देवता है। उसके ध्यान में लगो और एक निमेष भी उसके ध्यान से न उतरो। मैं भी उसके ध्यान में लगता हूँ। वह नारा- यण अजन्मा पुरुष है और मैं सदा उसके परायण हूँ और सब प्रकार नारायण मैं हूँ। 'ओंनमोनारायणाय' यह मन्त्र सब अर्थों का सिद्ध करता है इस मंत्र के ध्यान जाप करते हुए हमारे हृदय में स्फुरणरूप होगा। वह हरि सबका आत्मा है, पृथ्वी हरि है, यह सब जगत् भी हरि है, मैं भी हरि हूँ, आकाश भी हरि है और सबका आत्मा भी हरि है। अविष्णु होकर जो विष्णु का पूजन करते हैं वे पूजने का फल नहीं पाते और जो विष्णु होकर विष्णु का पूजन करते हैं वे परम उत्तम फल पाते हैं। इससे मैं विष्णुरूप होकर स्थित होता हूँ। मैं अनन्त आत्मा आकाश गरुड़ पर आरूढ़ हूँ और सुवर्ण के भूषण पहिरे हूँ मेरे हाथरूप वृक्ष पर जीवरूप सब पक्षी विश्राम पाते हैं। यह मेरी चतुर्भुजा हैं। जब मैंने क्षीरसमुद्र मथन किया था तब यह परस्पर घिसे हैं और यह मेरे पार्षद हैं, सुन्दर चमर जिनके हाथों में है, इनको मैंने क्षीरसमुद्र से उपजाया है। त्रिलोकीरूपी वृक्ष की यह सुन्दर मञ्जरी जो महाधवल मन के हरनेवाली है। यह मेरे पार्षदों में माया है जिसने अनन्त जगत्जाल निरन्तर उत्पत्ति, प्रलय किया है और इन्द्रजाल की विलासिनी है। यह मेरे पार्षदों जो शक्ति है इन्होंने लीला करके त्रिलोकीखण्ड वश किया है। जैसे कल्पवृक्ष लता फूलती है तैसे ही मेरे पार्षदों में यह फूलती है शीत उष्ण मेरे दो नेत्र हैं जो सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशते हैं और चन्द्रमा और सूर्य उनके नाम हैं। यह मेरा नीलकमल और महासुन्दर श्याम मेघवत् देह महाप्रकाशरूप है। यह मेरे हाथ में पाञ्चजन्य शंख जिसकी स्फुरण-रूप ध्वनि है क्षीरसमुद्र से निकला है। यह नाभिकमल है जिससे ब्रह्मा उत्पन्न हुए और इसमें निवास करते हैं-जैसे भ्रमरा कमल में निवास करता है। यह मेरे हाथ में कौमोदकी गदा है जो सुमेरु के शिखरवत् रत्नों की बनी हुई है और दैत्यदानवों के नाश करनेवाली है। यह मेरे हाथों में महाप्रकाश रूप सुदर्शनचक्र है। जिसका तेज ज्वाला के पुजवत् है और साधु को सुख देनेवाला है। यह मेरे हाथों में अग्नि के समूह-