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योगवाशिष्ठ।

पुतलीवत् हो गये। जैसे दग्धवृक्ष सूखकर रस से रहित हो जाता है तैसे ही हिरण्यकशिपु बिना दैत्य शोकवान् और महादुःखी हुए।

इति श्री योगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे हिरण्यकशिपुवधोनाम
त्रिंशत्तमस्सर्गः ॥ ३० ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब हिरण्यकशिपु के मारने से दैत्य बहुत दुःखी हुए तब प्रह्लाद ने मौन होकर विचारा कि पाताल में सब दैत्य मिलकर चिन्तासंयुक्त बैठे हैं। उनसे जाकर प्रह्लाद ने कहा कि अब अपनी रक्षा के निमित्त कौन उपाय कीजियेगा, हमारे दैत्यों के नाश करनेवाले विष्णु बड़े बली हैं, जिनके नखतीक्ष्ण खड्ग की धारवत् हैं। जैसे सिंह मृगों को मारता है तैसे वे हमको मारते हैं और पाताल में दैत्य शान्तिमान् कदाचित् नहीं होने पाते। जब दैत्य बढ़ते हैं तब विष्णु आ उन्हें नाश करते हैं और जैसे कमलों पर पर्वत आ पड़े तैसे उन्हें चूर्ण करते हैं। बड़े आकाश गौरव शब्द करनेवाले दैत्य उपज उपजकर नष्ट हो जाते हैं-जैसे जल में तरङ्ग उपजकर नष्ट हो जाते हैं। भीतर बाहर वह हमको बड़ा कष्ट देता है। हमारा शत्रु बड़ा दृढ़ और बड़ा अपूर्वतम आ बढ़ा है, हमारा हृदय तम से पूर्ण हो गया है और सम्पदा नष्ट हो गई है। जो देवता हमारे पिता से चूर्ण हुए थे उनका बल अब हमसे अधिक हो गया है और वे हमारी स्त्रियों को वश कर ले गये हैं-जैसे मृग को व्याध ले जाता है वे हमारा सब धन भी ले गये हैं और हम दीन हो रहे हैं जैसे जल बिना कमल कुम्हिला जाता है तैसे ही हम भी बान्धव बिना हुए हैं। हमारे घरों में धूल उड़ती है, जो बड़े स्थान मणियों से खचित थे वे शून्य हो गये और हमारे स्थानों में जो बड़े कल्पवृक्ष लगे थे वे उखाड़कर नन्दनवन में लगाये हैं। नरसिंहजी की सहायता से देवताओं ने ऐसा बल पाया है। हमारे वृक्ष और स्थान नरसिंहजी ने जला दिये हैं जिन देवताओं की स्त्रियों के मुख दैत्य देखते थे, उन सब दैत्यों की स्त्रियों के मुख अब देवता देखते हैं। जिस सुमेरु पर्वत पर कल्प और मन्दारवृक्ष विराजते थे वे स्थान अब शून्य हो गये वहाँ धूल उड़ती है और शोभा से रहित हो गया है। जो दैत्यों की स्त्रियाँ अपने