पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६१८

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योगवाशिष्ठ।

राज्य करता रहा। राजा बलि ने युगों के समूह व्यतीत हुए देखे थे और अनेक देवता और दैत्य भी उपजते मिटते अनेक बार देखे थे। त्रिलोकी के अनेक भोग भी उसने भोगे थे। निदान उनसे उद्वेग पाकर सुमेरु के शिखर पर एक ऊँचे झरोखे में अकेला जा बैठा और संसार की स्थिति को चिन्तना करने लगा कि इस बड़े चक्रवर्ती राज्य से मुझको क्या प्रयोजन है? यद्यपि त्रिलोकी का राज्य बड़ा है तो भी इसमें आश्चर्य क्या है। इसमें मैं चिरकाल भोग भोगता रहा हूँ परन्तु शान्ति न हुई। ये भोग उपजकर फिर नष्ट हो जाते हैं, इन भोगों से मुझे शान्ति सुख प्राप्त नहीं हुआ पर बारम्बार मैं वही कर्म और वही व्यवहार करता हूँ और दिन रात्रि वही क्रिया करने में लज्जा भी नहीं आती वही स्त्री आलिङ्गन करनी, फिर भोजन करना, पुष्पों की शय्या पर शयन करना और क्रीड़ा करना, ये कर्म बड़ों को लज्जा के कारण हैं। वही निरस व्यवहार फिर करना जो एक बार निरस हुआ और उस काल में तृप्त करता है, फिर बारम्बार दिन दिन करते हैं। यह मैं मानता हूँ कि यह काम बुद्धिमानों को हँसने योग्य और लज्जा का कारण है। जीवों के चित्त में वृथा संकल्प विकल्प उठते हैं-जैसे समुद्र में तरङ्ग उपजते और मिटते हैं तैसे ही यह संकल्प और इच्छा जाल जो उठते और मिटते हैं सो उन्मत्त की नाई जीवों की चेष्टा है। यह तो हँसी करने योग्य बालकों की लीला है और मूर्खता से अनर्थ फैलाती है। इसमें जो कुछ बड़ा उदार फल हो वह मैं नहीं देखता बल्कि इसमें भोगों से भिन्न कार्य कुछ नहीं मिलता, इसलिये जो कुछ इससे रमणीय और अविनाशी हो उसको शीघ्र ही चिन्तन करूँ। ऐसे विचारकर कहने लगा कि मैंने प्रथम भगवान् विरोचन से पूछा था। मेरा पिता विरोचन आत्मतत्त्व का ज्ञाता था और सब लोकों में गया था। उससे मैंने प्रश्न किया था कि हे भगवन्, महात्मन्! जहाँ सब दुःखों और सुखों का अन्त हो जाता है और सब भ्रम शान्त हो जाता है वह कौन स्थान है? वह पद मुझसे कहिये जहाँ मन का मोह नष्ट हो जाता है, सब इच्छा से मुक्त होता है और राग द्वेष से रहित जिसमें सर्वदा विश्राम होता है फिर कुछ क्षोभ नहीं रहता।