पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६१५

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उपशम प्रकरण।

को नहीं प्राप्त होते, इससे तुम परम विवेक और बुद्धि का संग लेकर जगत् में विचरोगे तब संकट और दुःख से मोहित न होगे। नाना प्रकार के दुःख, संकट, स्नेह आदिक विकाररूप जो समुद्र है उसके तरने के निमित्त एक अपना धैर्यरूपी बेड़ा है और कोई उपाय नहीं सो धैर्य क्या है-दृश्य जगत् से वैराग्य और सत् शास्त्र का विचार। इन श्रेष्ठ गुणों के अभ्यास से आत्मपद की प्राप्ति होती है। वह आत्मपद त्रिलोकी के ऐश्वर्यरूपी रत्नों का भण्डार है। जो त्रिलोकी के ऐश्वर्य से भी नहीं प्राप्त होता, वह वैराग्य, विचार, अभ्यास और चित्त के स्थिर करने से होता है। जब तक मनुष्य जगत् कोष में उपजता है और मन तृष्णा-रूपी ताप से रहित नहीं होता तब तक कष्ट है और जब आत्मविवेक से मन पूर्ण होता है तब सब जगत् अमृतरूप भासता है। जैसे जूती के पहिरने से सब पृथ्वी चर्म से वेष्टितसी हो जाती है तैसे ही पूर्णपद इच्छा और तृष्णा के त्यागने से पाता है। जैसे शरद्काल का आकाश मेघों से रहित निर्मल होता है तैसे ही इच्छा से रहित पुरुष निर्मल होता है। जिन पुरुषों के हृदय में आशा फुरती है उनके वश हुए चित्त शून्य हो जाता है और जैसे अगस्त्य मुनि ने समुद्र को पान किया था तब समुद्र जल से रहित हो गया था तैसे ही आत्मजल से रहित समुद्रवत् चित्त शून्य हो जाता है। जिस पुरुष के चित्तरूपी वृक्ष में तृष्णारूपी चञ्चल मर्कटी रहती है उसको वह स्थिर होने नहीं देती और सदा शोभाय- मान होती है और जिसका चित्त तृष्णा से रहित है उस पुरुष को तीनों जगत् कमल की कली के समान हो जाते हैं योजनों के समूह गोपदवत् सुगम हो जाते हैं और महाकल्प अर्धनिमेषवत् हो जाता है। हे रामजी! चन्द्रमा और हिमालय पर्वत भी ऐसा शीतल नहीं और केले का वृक्ष और चन्दन भी ऐसा शीतल नहीं जैसा शीतल चित्त तृष्णा से रहित होता है। पूर्णमासी का चन्द्रमा और क्षीरसमुद्र भी ऐसा सुन्दर नहीं और लक्ष्मी का मुख भी ऐसा नहीं जैसा इच्छा से रहित मन शोभायमान हो जाता है। जैसे चन्द्रमा की प्रभा को मेघ ढाँप लेता है और शुद्ध स्थानों को अपवित्र लेपन मलीन करता है तैसे ही अहंतारूपपिशाचिनी