पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५८४

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योगवाशिष्ठ।

और व्यतीत की चिन्तना नहीं करताथा जोवर्तमान कार्य प्राप्त हो उसको यथाशाब करे भोर अपने विचार के वश से उसने पाने योग्य पद पाया और इच्छा कुछ न की। हे रामजी! जीव आत्मपद को तभी तक नहीं प्राप्त होता जब तक हृदय में अपना पुरुषार्थरूपी विचार नहीं उपजा, जब अपने मापसे अपना विचाररूप पुरुषार्थ जागे तब सब दुःख मिट जावे और परम समता को प्राप्त हो ऐसा पद शास्त्र अर्थ और पुण्य क्रिया से नहीं प्राप्त होता जैसा अपने हृदय में विचार करने से होता है। वह पद निर्मल और स्वच्छ है और हृदय की तपन को निवृत्त करता है। बुद्धि के विचाररूपी प्रकाश से हृदय का अज्ञान नष्ट हो जाता है, और किसी उपाय से नहीं नष्ट होता। जो बड़ा आपदारूप दुःख तरने को कठिन है वह अपनी बुद्धि से तरना सुगम होता है—जैसे जहाज से समुद्र को पार करता है जो बुद्धि से रहित मूर्ख है उसको थोड़ी आपदा भी बड़ा दुःख देती है—जैसे थोड़ा पवन भी तृण को बहुत भ्रमाता है। जो बुद्धिमान है उसको बड़ी आपदा भी दुःख नहीं देती—जैसे बड़ा वायु भी पर्वत को चला नहीं सकता। इसी कारण प्रथम चाहिये कि सन्तों का संग और सवशात्रों का विचार करे और बुद्धि बढ़ावे। जब बुद्धि सत्यमार्ग की भोर बढ़ेगी तब परमबोध प्राप्त होगा—जैसे जल के सींचने और रखने से फल फल प्राप्त होता है तैसे ही जब बुद्धि सत्यमार्ग की ओरधावती है तब परमानन्द प्राप्त होता। जैसे शुक्लपक्ष का चन्द्रमा पूर्णमासी को बहुत प्रकाशता है, जितने जीव संसार के निमित्त यत्न करते हैं वही यत्न सत्यमार्ग की भोर करें तो दुःख से मुक्त हों और परम संपदा के भण्डार को पावें। संसाररूपी वृक्ष का बीज बुद्धि की मूढ़ता है, इससे मूढ़ता से रहित होना बड़ा लाभ है। स्वर्ग पाताल का राजआदिक जो कुछ पदार्थ प्राप्त होते हैं सो अपने प्रयत्न से मिलते हैं। संसाररूपी समुद्र के तरने को अपनी बुद्धिरूपी जहाज है और तप तीर्थ आदिक शुभमाचार से जहाज चलता है। बोधरूपी पुष्पलता के बढ़ाने को देवीसंपदा जल है उसके बढ़ने से सुन्दर फल प्राप्त होता है। जो बोध से रहित चल ऐश्वर्य से बड़ा भी है उसको तुच्छ अज्ञान नाश कर डालता है—जैसे बल से रहित