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उपशम प्रकरण।

करने से क्या प्रयोजन है और न करने से क्या हानि है। जो कुछ कर्तव्य है वह शरीर करता है निर्मल अपवरूप चैतन्य न करता है, न भोगता है। इससे मुझको कर्तव्य नहीं। जो त्याग करूँगा तो शरीर करने से रहित होगा और जो करूँगा तो भी शरीर करेगा, मुझको क्या प्रयोजन है? इससे करने और न करने में मुझको लाभ हानि कुछ नहीं जो कुछ प्राप्त हुमा है उसमें विचरता हूँ अप्राप्त की मैं वाञ्छा नहीं करता और प्राप्त में त्याग नहीं करता अपने स्वरूप में स्थित होकर स्वस्थ होऊँगा और कुछ प्राप्त कर्म है वही करता हूँ, न कुछ मुझको करने में अर्थ है और न करने में दोष है जो क्रिया हो सो हो, करु अथवा न करु और युक्त हो अथवा अयुक्त हो मुझको ग्रहण त्याग करने योग्य कुछ नहीं। इससे जो कुछ प्राप्त करने योग्य कर्म हैं वे ही करूँगा। कर्म का करना प्राकृत शरीर से होता है, आत्मा को तो कुछ कर्तव्य नहीं, इससे मैं इनमें निस्संग हो रहूँगा। जो निःस्पन्द चेष्टा हो तो क्या सिद्ध हुआ और क्या किया। जो मन कामना से रहित स्थित विगतज्वर हुधा अर्थात् हृदय में राग देष मलीनता न उपजा तो देह से कर्म हो तो भी इष्ट भनिष्ट विषय की प्राप्ति में तुलना रहेगी और जो देह से मिलकर मन कर्म करता है तब कर्ता भोक्ता है और इष्ट अनिष्ट की प्राप्ति में राग देषवान होता है। जब मन का मनन उपशम होता है तब कर्तव्य में भी अकर्तव्य है। जैसा निश्चय हृदय में दृढ़ होता है वह रूप पुरुष का होता है, जिसके हृदय में महंकृत नहीं है और बाहर कर्म चेष्टा करता है तो भी उसने कुछ नहीं किया और जिसके हृदय में अहंकृत अभिमान है वह बाहर से अकर्ता भासता है तो भी अनेक कर्म करता है। इससे जैसा निश्चय हृदय में दृढ़ होता है तैसा ही फल होता है। जो बाहर कर्ता है परन्तु हृदय में कर्त्तव्य का भभिमान नहीं रखता तो वह धैर्यवान पुरुष अनामय पद को प्राप्त होता है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे जनकनिश्चय- वर्णनन्नाम दशमस्सर्गः॥१०॥