पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५७८

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योगवाशिष्ठ।

खोलने से जगत् होता है और उनमेष मूँदने से जगत् का प्रभाव हो जाता है वे भी नष्ट हुए हैं तो हमारी क्या गिनती है? जो जो पदार्थ बड़े रमणीय भासते हैं वे स्थित रूप हैं उन पदार्थों की चिन्ता और क्या इच्छा करनी है? नाना प्रकार की सम्पदा प्राप्त होती हैं पर इनमें जब कोई चित्त को आ लगता है तब सब सम्पदा आपदारूप हो जाती हैं और जो बड़ी आपदा आ प्राप्त होती है और चित्त में क्षोभ नहीं होता शान्तरूप है तब वे ही आपदा सम्पादरूप हैं? इससे यही सिद्ध हुआ कि सब मन के फुरनेमात्र है। क्षणभंगुररूप मन की वृत्ति है अकस्मात् जगत् में इसकी स्थिति भई है और प्रज्ञान से अहं की कल्पना है उसमें त्याग और ग्रहण की भावना मिथ्या है। क्षीणरूप संसार में सुख आदि अन्तसंयुक्त है। जो सुख जानकर जीव इसकी ओर धावता है वह सुख फिर नष्ट हो जाता है—जैसे पतङ्ग दीपशिखा को सुखरूप जानकर उसकी ओर धावता है तो दग्ध हो जाता है तैसे ही संसार के सुख ग्रहण करनेवाले तृष्णा से दग्ध हुए हैं। जैसे नरक की अग्नि दग्ध करती है पर वह भी श्रेष्ठ है परन्तु क्षणभंगुर जो संसार के सुख हैं वे महानीच हैं—ष्ट हुए भी दुःख देजाते हैं। और दुःखों की सीमा हैपरजो इस संसारसमुद्र में गिरते हैं वे सुख नहीं पाते। संसार में दुःख स्वाभाविक है और दुःख से मिश्रित है। मैं भी अज्ञानी की नाई काष्ठखोष्ठवत् स्थित हो रहा हूँ और बड़ा खेद है कि अज्ञानीवत् शमादिक सुख को त्याग करके क्षणभंगुर संसार के सुख निमित्त यत्ल करता हूँ। जैसे वरफ से अग्नि नहीं उपजती तैसे ही संसार सुख नहीं उपजते, जितने जीव हैं वे जड़ धर्मात्मक हैं संसार-रूपी एक वृक्ष है और सहस्रों अंकुर, शाखा, पत्र, फल, फूलों से पूर्ण है। उस संसाररूपी वृक्ष का मूल मन है उसके संकल्परूपी जल से विस्तार को प्राप्त हुआ है और संकल्प के उपशम हुए नष्ट हो जाता है। इससे जिस प्रकार यह नष्ट हो वही उपाय मैं करूँगा। संसार में भोग देखने मात्र सुन्दर भासते हैं औरभीतर से दुःखरूप हैं। मन मर्कटवत् चञ्चल रूप है उसने यह रचना रची है। जबतक इसको वास्तव में नहीं जाना तब तक चञ्चल है और जब विचार से जानता है तब पदार्थों की रमणीयता