पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५७६

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योगवाशिष्ठ।

हैं—जैसे नल में बुदबुदे उपजकर नष्ट हो जाते हैं—तो मैं क्या इस संसार में आस्था बाँधकर जीऊँगा। सन्तजन मुझको हँसेंगे, कई ब्रह्मा होगये हैं, कई पर्वत हो गये हैं और कई धूल की कणिकावत् राजा हो गये हैं तो मुझको इस जीने में क्या धैर्य है? संसाररूपी रात्रि में देहरूपी शून्य दृष्टि स्वमा है, उस भ्रमरूप में जो मैंने आस्था बाँधी है इससे मुझको धिक्कार है। यह, वह और मैं इत्यादिक भ्रम आत्मा में मिथ्या कल्पना उठी है और अबानियों की नाई में स्थित हुआ हूँ। अहंकाररूपी पिशाच करके क्षण क्षण में आयु व्यतीत होती है, देखते हुए भी नहीं दीखती। काल की सूक्ष्मगति है जो सबको चरण के नीचे धरे है, सदाशिव और विष्णु को जिसने खेलने का गेंद किया है और वह सबको भोजन करता है इससे मुझको जीने में क्या आस्था बाँधनी है जितने पदार्थ हैं वे निरन्तर नाश होते हैं, कोई दिन में कोई पक्ष में और कोई वर्ष में नष्ट हो जाता है। जो अविनाशी वस्तु है वह अब तक नहीं देखी वर्षों व्यतीत हो गये हैं, जीवों की चित्तरूपी नदी में भोगों की तृष्णारूपी तरङ्ग उछलती है, शान्त कदाचित नहीं होती-जैसे वायु से नदी में तरङ्ग उछलती हैं और सोमता से रहित हो जाते हैं। जिनको चित्त में भोगों की अभिलाषा है उनको अतुच्छपद दृष्टि नहीं पाता और वे कष्ट से कष्ट को प्राप्त होते हैं और उन्हें दुःख से दुःखान्तरप्राप्त होता है। अब तक मैं विरक्त नहीं हुआ इससे मुझको धिक्कार है। जिसका अन्तःकरण नीच है उसने जिस जिस वस्तु में कल्याणरूप जान के आस्था बाँधी है वह नष्ट होती दीखती है। यह शरीर अस्थि-मांस से बना है और यदि अन्त संयुक्त इसका प्राकार है, मध्य में कुछ रमणीय भासता है परन्तु सब अपवित्र पदार्थों से रचा विनाशरूप है, स्पर्श करने के भी योग्य नहीं उससे मुझको क्या प्रयोजन है। जिस जिस पदार्थ से लोग आस्था बाँधते हैं उस उस में मैं दुःख ही देखता हूँ और ये जीव ऐसे जड़ मूढ़ हैं कि सदा इसमें लगे रहते हैं कल यह पदार्थ मुझको प्राप्त होगा, अगले दिन यह मिलेगा। दिन दिन पाप करते और खेद पाते हैं तो भी त्याग नहीं करते। बालक अग्नि में पूरी मूढ़ता से विचारते, योवन अवस्था कामादि विकार