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उपशम प्रकरण।

को वसन्त ऋतुवत् और स्त्रियों को कामदेववत् था। ब्रह्मरूपी चन्द्रमुखी कमल का वह शीतल चन्द्रमा था, दुष्टरूपी तम का नाशकर्ता सूर्य था और स्वजनरूपी रत्नों का समुद्र पृथ्वी में मानों विष्णुसूर्य स्थित इमा था ऐसा राजा जनक एक समय लीला करके अपने बाग में जिसमें मीठे फल लगे थे और नाना प्रकार के सुन्दर बेलों पर कोकिला शब्द करती थीं इस भाँति गया जैसे नन्दनवन में इन्द्र प्रवेश करे। उस सुन्दर वन में पुष्पों से सुगन्ध फैल रही थी राजा अपने संग के अनुचरों को दूर त्यागकर आप अकेला कुओं में विचरने लगा। शाल्मली-नामक एक वृक्ष था उसके नीचे राजा ने शब्द सुना कि मदृष्टसिद्ध जो विरक्त चित्त और नित्य पर्वतों में विचरनेवाले हैं आत्मगीता का उच्चारण करते हैं जिससे आत्मबोध प्राप्त होता है। उस गीता को राजा ने सुना कि पहला सिद्ध बोला, यह द्रष्टा जो पुरुष है और दृश्य जो जगत् है उस द्रष्टा और दृश्य के मिलाप में जो बुद्धि में निश्चित आनन्द होता है और इष्ट के संयोग और अनिष्ट के वियोग का जो आनन्द चित्त में दृढ़ होता है वह आनन्द आत्मतत्त्व से उदय होता है। उस आत्मा की हम उपासना करते हैं। दूसरा सिद्ध बोला कि द्रष्टा, दर्शन और दृश्य को वासना सहित त्याग करो। जो दर्शन से प्रथम प्रकाशरूप है और जिसके प्रकाश से यह तीनों प्रकाशते हैं उस आत्मा की हम उपासना करते हैं। तीसरा सिद्ध बोला जो निराभास और निर्मल है, जिसमें मन का प्रभाव है, अर्थात् अदेतरूप है उसकी हम उपासना करते हैं। चौथा सिद्ध बोला कि जो दृष्टा, दृश्य दोनों के मध्य में है और अस्ति नास्ति दोनों पक्षों से रहित प्रकाशरूप सत्ता है और सूर्य मादिक को भी प्रकाशता है उस आत्मा की हम उपासना करते हैं। पञ्चम सिद्ध बोला कि जो ईश्वर सकार और हकार है अर्थात् सकार जिसके आदि में है और हकार जिसके अन्त में है सो अन्त से रहित, आनन्द, अनन्त, शिव, परमामा सर्वजीवों के हृदय में स्थित है और निरन्तर जो अहंरूप होकर उचार होता है उस आत्मा की हम उपासना करते हैं। बठा सिद्ध बोला कि हृदय में स्थित जो ईश्वर है उसको त्यागकर जो और देव के पाने का