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योगवाशिष्ठ।

सब गुण प्रवेश करते हैं और गुणों से पूर्ण होकर वह गुरु की शरण जाता है। तब वह उसे विवेक का उपदेश करता है और उस विवेक से वह परमपद में स्थित होता है। हे रामजी! जो वैराग्य और विचार से सम्पन्न चित्त है वह आत्मदेव को देखता है उसको दुःख स्पर्श नहीं करता, वह यथार्थ एक आत्मरूप को देखता है। तुम विचार का भाषय करके मन को जगावो, जिसमें मनन ही मंथन है अर्थात् सदा प्रपञ्च दृश्य का मननभाव करता है जो अन्त का जन्मवान पुरुष है वह मनरूपी मृग को जगाता है। प्रथम तो साधारण गुणों से जगाता है, फिर बड़े गुणों से जगाता है और फिर जागके सेवन का यत्न करता है। वह निर्मल बुद्धि से विचार करता है, उस विचार से जगत् को आत्मरूप देखता है और आत्मा के प्रकाश (विचार) से अविद्या मल नष्ट हो जाता है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे क्रमोपदेशवर्णननाम षष्ठस्सर्गः॥६॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह तुमसे मैंने क्रम कहा सो वह सब जीवों को समान है इससे जो विशेष है वह तुम सुनो। इस जगत् के आरम्भ में जो देहधारी जीव हैं उन जीवों का आत्मप्रकाश से मोक्ष होता है। एक उत्तम क्रम है और एक समान कम है। जो गुरु के निकट जावे और वह उपदेश करे तो उस उपदेश के धारण से शनैःशनैः एक जन्म से अथवा अनेक जन्मों से सिद्धता प्राप्त होती है और दूसरा क्रम यही है जो अपने आपसे वह उत्पन्न होती है अर्थात् समझ लेता है। जैसे वृक्ष से फल गिरे और किसी को भा प्राप्त हो तेसे ही बान प्राप्त होता है। इसी पर पूर्व का वृत्तान्त मैं तुमसे कहता हूँ सो तुम सुनो। वह महापुरुषों का वृत्तान्त है शुभ अशुभ गुणों के समूह जिनके नष्ट हुए हैं और मकस्मात् फल जिनको प्राप्त हुआ है उनका निर्मल क्रम सुनो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे क्रमसूचनानाम सप्तमस्सर्गः॥७॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जिसकी सव सम्पदा उदय हुई थी और सब आपदा नष्ट हुई थी, ऐसा एक उदार बुद्धि विदेहनगर का राजा जनक हुआ है। वह बढ़ा धैर्यवान था, अर्थी का अर्थ कल्पवृक्ष की नाई पूर्ण करे, मित्ररूपी कमलों को सूर्यवन प्रफुल्लित करे, वान्धवरूपी पुष्पों