पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५६८

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योगवाशिष्ठ।

बोले, हे रामजी! प्रथम तो जीव को विचारपूर्वक वैराग कहा है कि सन्तजनों का सङ्ग और सदशास्त्रों से मन को निर्मल करे। जब मन को निर्मल करेगा तब स्वजनता से सम्पन्न होगा और वैराग्य उपजेगा। जब वैराग प्राप्त होगा तब अज्ञानवत् गुरु के निकट जावेगा और जब वह उपदेश करेंगे तब ध्यान, अर्चनादि के क्रम से परमपद को प्राप्त होगा। जब निर्मल विचार उपजता है तव अपने आपको मापसे देखता है—जैसे पूर्णमासी का चन्द्रमा अपने विम्ब को आपसे देखता है। जब तक विचाररूपी तट का आश्रय नहीं लिया तब तक संसार में तृणवत् भ्रमता है और जब विचार करके ज्यों का त्यों वस्तु जानता है तब सब दुःख नष्ट हो जाते हैं। जैसे सोमजल के नीचे रेत जा रहती है तैसे ही भाषी पीड़ा उसकी निवृत्त हो जाती है फिर उत्पन्न नहीं होती। जैसे जब तक सुवर्ण और राख मिली हुई है तब तक सोनार संशय में रहता है और जब सुवर्ण और राख भिन्न हो जाती है तब संशय रहित सुवर्ण को प्रत्यक्ष देखता है और तभी निःसंशय होता है, तेसे ही अज्ञान जीवों को मोह उत्पन्न होता है और देह इन्द्रियों से मिला हुमा संशय में रहता है जब विचार से भिन्न-भिन्न जाने तब मोह नष्ट हो भोर तभी संशय से रहित शुद्ध अविनाशीरूप आत्मा को देखता है। विचार किये मोह का अवसर नहीं रहता—जैसे अज्ञानी पुरुष चिन्तामणि की कीमत नहीं जान सकता, जब उसको ज्ञान प्राप्त होता है तब ज्यों का त्यों जानता है और मोह संशय निवृत्त हो जाता है, तेसे ही जीव जब तक प्रात्मतत्त्व को नहीं जानतातब तक दुःख का भागी होता है और सबज्यों कात्योंजानता हैतन शुद्ध शान्ति को प्राप्त होता है। हे रामजी!मात्मा देह से मिश्रित भासता है पर वास्तव में कुछ मिश्रित नहीं, इससे अपने स्वरूप में शीघ्र ही स्थित हो जावो। निर्मल स्वरूप जो आत्मा है उसको रचकमात्र भी देह से सम्बन्ध नहीं-जैसे मुवर्ण कीच में मिश्रित भासता है तो भी सुवर्ण को कीच का लेप नहीं निर्लेप रहता है तैसे ही जीव को देह से कुछ सम्बन्ध नहीं निर्लेप ही रहता है—आत्मा भिन्न है, देह भिन्न है। जैसे जल और कमल भिन्न रहते हैं। मैं ऊँची भुजा करके पुकारता हूँ, मेरा कहा मूर्ख नहीं मानते कि संकल्प से