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योगवाशिष्ठ।

नहीं उपजते, तैसे ही जो विवेकी उदार आत्मचित्त पुरुष हैं उनके हृदय में ये वचन फलीभूत होते हैं। वाल्मीकिजी बोले कि इस प्रकार जब ब्रह्माजी के पुत्र वशिष्ठजी ने कहा तब महामोजवान गम्भीर रामजी भवकाश पाके बोले, हे भगवन्! सब धर्मों के वत्ता और आपने जो परम उदार वचन कहे हैं उनसे मैं बोधवान हुभा हूँ और जैसे आप कहते हैं तैसे ही सत्य है, अन्यथा नहीं। हे भगवन्। मैंने समस्त रात्रि आपके वाक्यों के विचार में व्यतीत की है। आप तो हृदय के अज्ञानरूपी तम के नाशकर्ता पृथ्वी पर सूर्यरूप विचरते हैं। हे भगवन्! आपने जो व्यतीत दिन में आनन्ददायक, प्रकाशरूपी, रमणीय और पवित्र वचन कहे थे, व मैंने सब अपने हृदय में भली प्रकार धरे हैं। जैसे समुद्र से नाना प्रकार के रत्न निकलते हैं तैसे ही आपके वचन कल्याणकर्ता और बोधवान हैं अर्थात् सबके सहायक और हृदयगम्य अानन्द का कारण हैं। वह कौन है जो आपकी आज्ञा शिर पर न धरे? जो मुमुक्षु जीव हैं वे सब भापकी आज्ञा शीश पर धरते हैं और अपने कल्याण के निमित्त जानते हैं। हे मुनीश्वर! पापके वचनों से मेरे संशय निवृत्त हुए हैं—जैसे शरत्काल में मेघ और कुहिरा नष्ट हो जाता है और निर्मल आकाश भासता है। यह संसार भापातरमणीय भासता है, जब तक पदार्थों का विभाग नहीं होता तब तक सुखदायक भासते हैं, और जब विषय इन्द्रियों से दूर होते हैं तब दुःखदायक हो जाते हैं आपके वचन ऐसे हैं कि जिनके आदि में भी यत्ल कुछ नहीं सुगम मधुर आरम्भ है, मध्य में सौभाग्य मधुर है अर्थात् कल्याण करता है और पीछे से अनुत्तमपद को प्राप्त करते हैं जिसके समान और कोई पद नहीं। यह आपके पुण्यरूप वचनों का फल है और आपके वचनरूपी पुष्प सदा कमलसमान खिले हुए निर्मल आनन्द के देनेवाले हैं और उदित फूल हैं उनका फल हमको प्राप्त होगा।सशास्त्रों में जो पुण्यरूपी जल है उसका यह समुद्र है, अब मैं निष्पाप हुआ हूँ मुझको उपदेश करो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे राघववचनन्नाम चतुर्थस्सर्गः॥४॥