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योगवाशिष्ठ।

वह सुषुप्ति वासना से वेष्टित हुए गर्भ पिंजरे में पड़ते हैं। हे रामजी! जैसे मृत्तिकामें घटादिक, काष्ठ में अग्नि और दूध में घृत सदा रहता है तैसे ही वीर्य में जीव रहता है इस प्रकार परमात्मा महेशरूप से जीव की परम्परा उपजती है। वायु, धूम्र, औषध, प्राण, चन्द्रमा की किरणें इत्यादिक अनेक मार्गों से जीव उपजते हैं जो उपजने से आत्मसत्ता से अप्रमादी रहते हैं और जिनको अपना स्वरूप विस्मरण नहीं होता वे शुद्ध सात्विकी हैं और महाउदार व्यवहारवान् होते हैं और जिनको उपजना विस्मरण हो जाता है और फिर उसी शरीर में आत्मा का साक्षात्कार होता है वह सात्विकीरूप है और जो उपजकर नाना प्रकार के व्यवहार करते हैं और जिनको स्वरूप विस्मरण हो जाता है जन्म की परम्परा पाकर स्वरूप का साक्षात्कार होता है वे राजस सात्विकी कहाते हैं। जिनको अन्त का जन्म आ रहता है उनको जिस प्रकार मोक्ष होता है वह क्रम अव तुमसे कहता हूँ। हे रामजी! उपजनेमात्र से जो अप्रमादी हुए हैं वे शुद्ध सात्त्विकी हैं और वे ही ब्रह्मादिक हैं और जो प्रथम जन्म से बोधवान् हुए हैं वे सात्विकी हैं और जो कभी किसी जन्म में मोक्ष हुए हैं वे राजसी सात्त्विकी हैं। इसमे भिन्न नाना प्रकार के मूढ़, जड़ और तमसंयुक्त स्थावरादिक अनेक हैं। जिनको आत्मपद प्राप्त हुआ है उनको जो मिलते हैं उनका अन्त जन्म है। ऐसे पुरुष विचारते हैं कि मैं कौन हूँ और यह जगत् क्या है और इस विचार के क्रम से मोक्षभागी होते हैं वे राजस से सात्विकी होते हैं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे विचारपुरुषनिर्णयो नाम एकोनषष्टितमस्सर्गः॥५८॥

वशिष्ठजी बोले, हेरामजी! जो राजस से सात्विकी होते हैं वे पृथ्वी पर महागुणों से शोभायमान होते हैं और सदा उदितरूप रहते हैं। जैसे आकाश में चन्द्रमा रहता है। वे पुरुष खेद नहीं पाते—जैसे आकाश को मलीनता नहीं स्पर्श करती तैसे ही उनको आपदा स्पर्श नहीं करती। जैसे रात्रि के आये से सुवर्ण के कमल नहीं मुंदते, जो कुछ प्रकृति आचार है उसके अनुसार चेष्टा करते हैं और जैसे सूर्य अपने आचार में विचरता है और