पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५३

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वैराग्य प्रकरण।

होता है और विषय की तृष्णा निवृत्त नहीं होती और तृष्णा के मारे जन्म से जन्मान्तर में दुःख पाता है। हे मुनीश्वर! ऐसी दुःखदायक युवावस्था की मुझको इच्छा नहीं है। हे मुनीश्वर जैसे प्रलयकाल में सब दुःख आकर स्थिर होते हैं वैसे ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहङ्कार, चपलता इत्यादिक सब दोष युवावस्था में आ स्थिर होते हैं जो सब बिजली की चमक से हैं; होके मिट जाते हैं। जैसे समुद्र तरङ्ग होकर मिट जाते हैं वैसे ही यह क्षणभंगुर है और वैसे ही युवावस्था होके मिट जाती है। जैसे स्वप्न में कोई स्त्री विकार से छल जाती है वैसे ही अज्ञान से युवावस्था छल जाती है। हे मुनीश्वर! युवावस्था जीव की परम शत्रु है। जो पुरुष इस शत्रु के शस्त्र से बचे हैं वही धन्य हैं। इसके शस्त्र काम और क्रोध हैं जो इनसे छुटा वह वज्र के प्रहार से भी न छेदा जायेगा और जो इनसे बँधा हुआ है वह पशु है। हे मुनीश्वर! युवावस्था देखने में तो सुन्दर है परन्तु भीतर से तृष्णा से जर्जरीभूत है। जैसे वृक्ष देखने में तो सुन्दर हो परन्तु भीतर से घुन लगा हुआ हो वैसे ही युवावस्था है जो भोगों के निमित्त यत्न करती है वेभोग आपात-रमणीय हैं। कारण यह कि जब तक इन्द्रियों और विषयों का संयोग है तब तक अविचार से भला लगता है और जब वियोग होता है तब दुःख होता है। इसलिए भोग करके मूर्ख प्रसन्न और उन्मत्त होते हैं उनको शान्ति नहीं होती। भीतर सदा तृष्णा रहती है और स्त्री में चित्त की आसक्ति रहती है। जब इष्ट वनिता का वियोग होता है तब उसको स्मरण करके जलता है जैसे वन का वृक्ष अग्नि से जलता है वैसे ही युवावस्था में इष्ट के वियोगसे जीव जलता है। जैसे उन्मत्त हस्ती जंजीर से बंधतातो स्थिर होता है कहीं जा नहीं सकता वैसे ही कामरूपी हस्ती को जंजीररूपी युवावस्था बन्धन करती है। युवावस्थारूपी नदी है उसमें इच्छारूपी तरंग उठते हैं वे कदाचित् शान्ति नहीं पाते। हे मुनीश्वर! यह युवावस्था बड़ी दुष्ट है। बड़े बुद्धिमान, निर्मल और प्रसन्न पुरुष की बुद्धि को भी मलिन कर डालती है। जैसे निर्मल जल की बड़ी नदी वर्षा काल में मलिन हो जाती है वैसे ही युवावस्था में बुद्धि मलिन हो जाती है। हे मुनी!