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स्थिति प्रकरण।

वनस्पति रोम है सूर्य चन्द्रमा उसके कुण्डल हैं, पर्वत कड़े हैं, पवन प्राणवायु है, दिशा हस्त हैं, समुद्र पारसी है, सूर्यादिक उष्णता उसका पित्त है और चन्द्रमा कफ है। ऐसी त्रिलोकीरूप एक पुतली है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे दासुरोपाख्याने अवलोकनं नामैकोनपञ्चाशत्तमस्सर्गः॥४९॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! कदम्ब वृक्ष के ऊपर स्थित होकर वह तप करने लगा इसलिए उसका नाम कदम्बतपासुर हुआ। एक क्षण उसने दिशा को देख वहाँ से वृत्ति को खींचा और पद्मासन बाँधकर मन को एकाग्र किया। दासुर परमार्थपद से अज्ञात था इसलिये कर्म में स्थित था और फल की ओर उसका मन था। मन से उसने यज्ञ का आरम्भ किया और जो कुछ सामग्री की विधि थी वह सब यथाशास्त्र मन से ही की और दस वर्ष मन में व्यतीत किये। उसने सब देवताओं का पूजन किया और गोमेध, अश्वमेध, नरमेध सब यथाविधि संयुक्त मन से किये और ब्राह्मणों को बहुत दक्षिणा दी। इस प्रकार समय पाकर उसका अन्तःकरण शुभ हुआ ओर आत्मपद में निमलचित्त से स्थित हुआ। बलात्कार से उसके हृदय में ज्ञान प्रकाशित होकर आत्मा के आगे के मलीन वासना का जो प्रावरण था नष्ट हो गया और जैसे शरत्काल में तड़ाग निर्मल होता है तैसे ही उस मुनीश्वर का चित्त संकल्प से रहित हुआ। एक दिन उसने एक वनदेवी को जिसके बड़े विशाल नेत्र, चपलरूप, पुष्पों की नाई दाँत और रति के समान महासुन्दरशरीर था, काम के मद से पूर्ण, मन के हरनेवाली अग्रभाग में देखी कि नम्र होकर देखता है। मुनीश्वर ने उससे कहा, हे कमलनयनि! तू कौन है? कैसी शोभितरूप है और इन पुष्पों से संयुक्त लता में किस निमित्त आई? तब कामदेव के मोहनेवाली गौरी बोली, हे मुनीश्वर! जो पदार्थ इस पृथ्वी में बड़े कष्ट से पास होता है वह महापुरुषों की कृपा से सुगमता से मिलता है। हम इस वन की देवियाँ लीला करती फिरती हैं और जिस निमित्त मैं तुम्हारे आगे आई हूँ वह सुनो। हे मुनीश्वर! पिछले दिन चैत्र शुक्ल त्रयोदशी थी, उस दिन