पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५२१

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स्थिति प्रकरण।

ब्रह्माजी उपजकर पुरुषभावना से पुरुषरूप स्थित होता है और उसका लाभ स्वयंभू होता है। कभी पुरुष जो विष्णुदेव है उसकी पीठ से उपजता है, कभी नेत्र से प्रकट होता है और कभी नाभि से उत्पन्न होता है तब प्रजापति, नेत्रज, पद्मज नाम होता है वास्तव में सब माया मात्र है और स्वप्नवत् मिथ्यारूप हो सत्य हो भासता है जैसे मनोराज की सृष्टि भास आती है तैसे ही यह जगत् है और जैसे नदी में तरङ्ग अभिन्नरूप फुरते हैं तैसे ही आत्मा में अभेद जगत् फुरता है वास्तव में दूसरा कुछ नहीं है जब शुद्धसत्ता का आभास संवेदन फुरता है तब वही जगतरूप हो भासता है। जैसे बालक के मनोराज में सृष्टि फुरती है सो वास्तव में कुछ नहीं होती तैसे ही यह है। कभी शुद्ध आकाश में मननकला फुरती है उससे अण्डा उपजता है और अण्डा से ब्रह्मा उपज आता है और कभी पुरुष विष्णुदेव जल में वीर्य डालता है उससे पद्म उपजता है और उसी पद्म से ब्रह्मा प्रकट होते हैं और कभी सूर्य से फुर आते हैं। इसी प्रकार विचित्ररूप रचना ब्रह्मपद से उपजती है और फिर लय हो जाती है। तुम्हारे दिखाने के निमित्त मैंने अनेक प्रकार की उत्पत्ति कही है पर वह सब मन के फुरनेमात्र है और कुछ नहीं। हे रामजी! तुम्हारे प्रबोध के निमित्त मैंने सृष्टि का क्रम कहा है पर इसका रूप मनोमात्र है, उपज उपजकर लय हो जाता है। फिर फिर दुःख, सुख, अज्ञान, ज्ञान, बन्ध-मोक्ष होते हैं और मिट जाते हैं। जैसे दीपक का प्रकाश उपजकर नष्ट हो जाता है तैसे ही देह उपजकर नष्ट हो जाते हैं काल की न्यूनता और विशेषता यही है कि कोई चिरकाल पर्यन्त रहता है और कोई शीघ्र ही नष्ट हो जाता है परन्तु सबही विनाशरूप हैं। ब्रह्मा से आदि कीट पर्यन्त जो कुछ आकार भासता है वह काल के भेद को त्यागकर देखो कि सब नाशरूप है। कभी सत्ययुग, कभी त्रेतायुग, कभी द्वापर और कभी कलियुग फिर फिर आते और जाते हैं। इसी प्रकार काल का चक्र भ्रमता है। मन्वन्तर का आरम्भ होता है और काल की परम्परा व्यतीत होती है। जैसे प्रातःकाल से फिर प्रातःकाल आता है तैसे ही जगत् की यही गति है, अन्धकार से प्रकाश होता