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वैराग्य प्रकरण।

ऐसी मूढ भोर दीन अवस्था की मुझको इच्छा नहीं, उसमें जिस पदार्थ को देखता है उसकी भोर धावता है जैसे कुत्ता क्षण-क्षण में दार की भोर जाता है और अपमान पाता है वैसे ही बालक अपमान पाता है। बालक को माता, पिता, बान्धव, अपने से बड़े बालक और पशुपक्षी का भी भय रहता है। हे मुनीश्वर! ऐसी दुःखरूपी अवस्था की मुझको इच्छा नहीं। जैसे स्त्रीके नयन मोर नदी का प्रवाह चञ्चल है उससे भी मन और बालक चञ्चल हैं भोर सब चञ्चलता बालक के कनिष्ठ हैं। हे मुनीश्वर जैसे वेश्या का चित्त एक पुरुष में नहीं ठहरता वैसे ही बालक का चित्त एक पदार्थ में नहीं ठहरता और उसको यह विचार भी नहीं होता कि इस पदार्थ से मेरा नाश होगा वा कल्याण होगा। बालक ऐसी ही व्यर्थ चेष्टा करता है, सदा दीन रहता है और सुख-दुःख की इच्छा से तपायमान रहता है।जैसे ज्येष्ठ-आषाढ़ में पृथ्वीतपायमान होती है वैसे ही बालक नपता रहता है शान्ति कदाचित् नहीं पाता। जब विद्या पढ़ने लगता है तव गुरु से ऐसा भयभीत होता है जैसे कोई यम को देख भय पावे और जैसे गरुड़ को देख के सर्प डरे। जब शरीर में कोई कष्ट प्राप्त होता है। तब भी वह बड़े दुःख को प्राप्त होता है और उस दुःख को निवारण नहीं कर सकता और सहने की भी सामर्थ्य नहीं होती, भीतर ही जलता है और मुख से कुछ बोल नहीं सकता। जैसे वृक्ष कुछ बोल नहीं सकता और जैसे पशु-पक्षी दुःख पाते हैं, न कुछ कह सकते हैं, न दुख का निवारण कर सकते हैं, भीतर ही भीतर जलते हैं वैसे ही बालक भी गूंगा और मूढ़ होकर दुःख पाता है। हे मुनीश्वर! ऐसी बालक अवस्था की इच्छा करने वाला मूर्ख है। यह तो परम दुःख रूप अवस्था है। इसमें विवेक और विचार भी कुछ नहीं होता। बालक खाने को आता है रुदन करता है। ऐमी अवगुणरूप अवस्था मुझको नहीं सुहाती। जैसे बिजली और जल के बुबुदे स्थिर नहीं रहते वैसे ही बालक भी कदाचित् स्थिर नहीं रहता। हे मुनीश्वर! यह महामूर्ख अवस्था है। इसमें कभी कहता है कि हे पिता! मुझको बरफ का टुकड़ा भून दे भोर कभी कहता है कि मुझको चन्द्रमा उतार दे। ये सब मूर्खता के वचन हैं। इससे ऐसी मूर्खावस्था को मैं