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योगवाशिष्ठ।

अकर्तव्य में भी कर्तव्य है और ज्ञानी को कर्तव्य में अकर्तव्य है। जैसे कोई पुरुष शय्या पर सोया हो और स्वप्न में गिर करके दुःख पावे तो वह अकर्तव्य में कर्तव्य हुआ और जैसे समाधि में स्थित होकर गढ़े में गिरा है पर उसको सर्व शान्तरूप है, यह कर्तव्य में भी अकर्तव्य हुआ, क्योंकि शय्या पर सोया था उसका मन चलता था इससे अकर्तव्य में उसको कर्तव्य हुआ और दुःख का अनुभव करने लगा और दूसरे को सुख का अनुभव हुआ। इससे यह निश्चय हुआ कि जैसा मन होता है तैसे ही सिद्धता प्राप्त होती है। तुम भी असंसक्त होकर कर्म करो तब अकर्ता हो रहोगे। जो कुछ जगत् भासता है वह आत्मा से व्यतिरेक नहीं। जिसको यह निश्चय होता है उस ज्ञानवान् को सुख-दुःख स्पर्श नहीं करते, उसे आधार, आधेय, इष्टा, दर्शन, दृश्य, इच्छा, आत्मा से भिन्न कुछ नहीं भासता जब ऐसे निश्चय होता है कि मैं देह नहीं, सब पदार्थों से व्यतिरेक और वाल के अग्र के सौवें भाग से भी सूक्ष्म हूँ अथवा जो कुछ दृश्य जगत् है सो सर्व में ही हूँ, सर्वतत्त्व का प्रकाशक और सर्वव्यापी हूँ, इस निश्चय से उसको सुख-दुःख का क्षोभ नहीं होता और विगतज्वर होकर स्थित होता है। यद्यपि दुःख और संकट ज्ञानवान को भी आ प्राप्त होते हैं तो भी उसको वास्तव से नहीं भासते वह परमानन्द से आनन्दवान लीलामात्र विचरता है। जैसे चन्द्रमा की चाँदनी शीतल प्रकाशित होती है तैसे ही वह पुरुष शीतल प्रकाशवान् होता है, उसको न चिन्ता होती है, न दुःख है। वह शान्तरूप कर्म को कर्ता भी है पर अकर्ता है, क्योंकि मन से सदा अलेप रहता है। हे रामजी! हस्त, पादादिक इन्द्रियों से करने का नाम कर्म नहीं मन के करने का नाम कर्म है। मन ही सब कर्मों का कर्ता है। 'अहं त्वं' सब भाव सब लोकों का वीज, सर्वगत मन है । जब मन नाश हो तव सब कर्म नष्ट हो जाते हैं और सब दुःख मिट जाते हैं। जैसे बालक मन से नगर रचे और फिर लीन कर ले तो उसको उपजाने और लीन करने में हर्ष शोक कुछ नहीं होता तैसे ही परमार्थदर्शी को किसी कर्म का लेप नहीं होता, वह करता हुआ भी कुछ नहीं करता और उसमें कर्तव्य,