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योगवाशिष्ठ।

चित्त से आपको देवता, मनुष्य आदिक शरीर जानते और कहते हैं। हे रामजी! यह जगत् आत्मा में न सत् है, न असत् है, जैसे सुवर्ण में भूषण हैं तैसे ही मूढ़ जीव आपको आकार मानते हैं। इससे तुम दृश्य को त्याग के द्रष्टा में स्थित हो और जिससे शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदिक सबको जानता है उसी को आत्मब्रह्म जानो, वह सर्व में पूर्ण स्थित, स्वच्छ और निर्मल है। आत्मसत्ता में एकद्वैत कल्पना कुछ नहीं। जब तक आत्मा से भिन्न कुछ वस्तु भासती है तब तक वासना उसकी ओर धावती है। हे रामजी आत्मा से व्यतिरेक कुछ सिद्ध नहीं होता तो किसकी वाञ्छा करे, किसका अनुसन्धान करे और किसका ग्रहण, त्याग करे? आत्मा को ईप्सित, अनीप्सित, इष्ट, अनिष्ट आदिक कोई विकार विकल्प स्पर्श नहीं करता और कर्ता, करण, कर्म तीनों की एकता है, न कोई आधार है, न आधेय है, द्वैत कल्पना का असंभव है और अहं त्वं आदिक कुछ नहीं, केवल ब्रह्मसत्ता स्थित है। ऐसे जानके सर्वदा निर्दन्द होकर सर्वसन्ताप से रहित कार्य में प्रवृत्त हो जानो। पूर्व जो तुमने कुछ किया और नहीं किया, उस करने और न करने से तुमको क्या सिद्ध हुआ ओर पाने योग्य कौन पद पाया और भूतों की गिनती में क्या बात है? तुम आपको हृदय में अकर्ता की भावना करो और बाहर से इन्द्रियों से जगत् के कार्य करो,जब स्थिरतारूपी समुद्र में तुम्हारी वृत्ति धैर्यवान होगी तव शान्तात्मा होंगे, पर दृश्य जगत् में तो दूर से दूर भी गये हृदय में शान्ति नहीं होती। जहाँ चाहे वहाँ जावे और चाहे जैसे पदार्थ पाने का यत्न करे पर उसके पाये से भी शान्ति प्राप्न न होगी। जगत् के सर्व दृश्य पदार्थ त्यागकर जो शेष अपना स्वरूप रहता है वही चिदात्मा है। उसमें स्थित हुए से शान्ति प्राप्त होगी।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे शान्त्युपदेशकरण न्नाम सप्तत्रिंशत्तमस्सर्गः॥३७॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार जो ज्ञानी पुरुष हैं उसमें कर्तव्य भाव भी दृष्टि आता है और हिंसादिक तामसी कर्म भी करते हैं तो भी स्वरूप के ज्ञान से वे अकर्ता ही हैं उन्होंने कदाचित् कुछ नहीं