पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४८८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४८२
योगवाशिष्ठ।

होता है। जैसे आकाश सर्वगत है परन्तु सूक्ष्मभाव से नहीं दीखता तैसे ही आत्मा निरंश, निराकार, सर्वगत और सर्वव्यापक है परन्तु लखा नहीं जाता भव्यक्त और अच्युतरूप है, उस आत्मा में जगत् ऐसे, है जैसे कोई थम्भ हो और उसमें शिल्पी कल्पना करे कि इतनी पुतलियाँ इसमें हैं। सो वह क्या है, कुछ नहीं, केवल शिल्पी के मन में फुरती है तैसे ही यह जगत् आत्मा में मनरूपी शिल्पी ने कल्पा हे सो आत्मा का आधार है और आत्मा के आश्रय आत्मा में स्थित है और आत्मा कदाचित् उससे स्पर्श नहीं करता। जैसे मेघ आकाश के आश्रय आकाश में स्थित है परन्तु आकाश उससे स्पर्श नहीं करता तेसे ही आत्मा अस्पर्श है और सर्वत्र पूर्ण है परन्तु हृदय में भासता है। जैसे सूर्य का प्रकाश सब ठौर व्यापक है। परन्तु जल में प्रतिविम्बित होता है और पृथ्वी, काष्ठ इत्यादि में प्रतिबिम्ब नहीं होता तैसे ही आत्मा का देह इन्द्रिय और प्राण में प्रतिविम्ब नहीं पड़ता हृदय में भासता है। वह आत्मा सर्वसंकल्प और संग से रहित स्वरूप है, उसको ज्ञानवान् पुरुष उपदेश के निमित्त चैतन्य, अविनाशी, आत्मा, ब्रह्मादिक कहते हैं पर आकाश से भी सूक्ष्म निर्मल है। आत्मा आभास से जगत् रूप हो भासता है, जगत् कुछ और वस्तु नहीं है। जैसे जल द्रवता से तरङ्गरूप हो भासता है परन्तु तरङ्ग कुछ भिन्न वस्तु नहीं है, तैसे ही आत्मा से व्यतिरेक जगत् नहीं; चेतनसत्ता ही चैत्यता फुरने से जगत्रूप हो भासती है। जो ज्ञानवान पुरुष है उसको तो एक आत्मा ही भासता है और अज्ञानी को नाना प्रकार जगत् भासता है। जगत् कुछ वस्तु नहीं है केवल आत्मसत्ता ही अपने आपमें स्थित है, अनुभव स्वभाव से प्रकाशता है और सूर्यादिक सबको प्रकाशनेवाला है। सब स्वादों का स्वाद वही है और सब भाव उसी से सिद्ध होते हैं। वह सचा उदय, अस्त ओर चलने, न चलने से रहित है, वह न लेता है, न देता है अपने आपमें स्थित है। जैसे अग्नि लपटरूप और जल तरङ्गरूप हो भासता है तैसे ही आत्मसत्ता जगतरूप हो भासती है और जीव अपने संवेदन फुरने से नाना प्रकार के संकल्प से विपर्ययरूप देखता है