पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४८

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योगवाशिष्ठ।

भोग भोगते हैं, परन्तु जरा अवस्था और मृत्यु दोनों को होती है, इसमें विशेषता कुछ नहीं शरीर का उपकार करना और भोग भुगतना तृष्णा के कारण उलटा दुःख का कारण है जैसे कोई नागिनि को घर में रखकर दूध पिलावे तो अन्त में वह उसे काटकर मारेगी वैसे ही जिस जीव ने तृष्णारूपी नागिनी के साथ मित्रता की है वह मरेगा, क्योंकि नाशवन्त है। इसके निमित्त भोग भुगतने का यत्न करना मूर्खता है। जैसे पवन का वेग आता और जाता है वैसे ही यह शरीर भी आता और जाता है, इससे प्रीति करना दुःख का कारण है। जैसे कोई विरला मृग मरुस्थल की आस्थात्यागता है और सब पड़े भ्रमते हैं वैसे ही सब जीव इसकी आस्था में बंधे हुए हैं, इसका त्याग कोई विरले ही ने किया है। हे मुनीश्वर! बिजली और दीपक का प्रकाश भी आता जाता दीखता है, परन्तु इस शरीर का आदि मन्त नहीं दीखता कि कहाँ से आता है और कहाँ जाता है। जैसे समुद्र में बुबुदे उपजते और मिट जाते हैं उसकी आस्था करने से कुछ लाभ नहीं वैसे ही यह शरीर है इसकी आस्था करना योग्य नहीं। यह अत्यन्त नाशरूप है स्थिर कदाचित् नहीं होता है। जैसे बिजली स्थिर नहीं होती वैसे ही शरीर भी स्थिर नहीं रहता इसलिए इसकी मैं आस्था नहीं करता। इसका अभिमान मैंने त्याग दिया है। जैसे कोई सूखे तृण को त्याग देता है वैसे ही मैंने अहंममतात्यागी है। हे मुनीश्वर! ऐसे शरीर को पुष्ट करना दुःख का निमित्त है। यह शरीर किसी अर्थ नहीं पाता जलाने योग्य है। जैसे लकड़ी जलाने के सिवाय और काम में नहीं पाती वैसे ही यह शरीर भी जड़ और गूंगा जलाने के अर्थ है। हे मुनीश्वर! जिस पुरुष ने काष्ठरूपीशरीर को ज्ञानाग्नि से जलाया है उसका परम अर्थ सिद्ध हुआ है और जिसने नहीं जलाया उसने परम दुःख पाया है। हे मुनीश्वरा! न मैं शरीर हूँ, न मेरा शरीर है; न इसका मैं हूँ, न मेरा यह है; अब मुझको कामना कोई नहीं, मैं निराशी पुरुषहूँ और शरीर से मुझको कुछ प्रयोजन नहीं इसलिये आप वही उपाय कहिये जिससे मैं परमपद पाऊँ। हे मुनीश्वर! जिस पुरुषने शरीर का अभिमान त्यागा है वह परमानन्दरूप है और जिसको देह का अभिमान है वह परम दुखी है। जितने दुःख हैं