पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४७७

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स्थिति प्रकरण।

में संसार का अत्यन्त अभाव हो जाता है। जब दृश्य का अत्यन्त अभाव हुआ तब आत्मा शेष रहता है। इस क्रम से जीव का जीवत्व भाव निवृत्त हो जाता है और बोधतत्त्व शेष रहता है। जगत् न उपजता है न आगे होगा और न अब वर्तमान् में है। इस प्रकार मैंने तुमसे अनन्त युक्ति से कहा है और कहूँगा। ज्ञानवान् को सर्वदा ऐसा ही मनन होता है। अचल चिदात्मा में चञ्चल चित्त फुरा है और उसी ने जगत् आभास रचा है। जैसे जैसे वह फुरता है तैसे ही तैसे भासता है और वास्तव में कुछ नहीं। जैसे सूर्य और किरणों में कुछ भेद नहीं। तैसे ही जगत् और आत्मा में कुछ भेद नहीं। अहंरूप आत्मा में आपको न जानना ही आत्माकाश में मेघरूपी मलीनता है। जब परमार्थ में अहंभाव को जानेगा तब अनात्म में अहंभाव लीन हो जावेगा और तभी चिदाकाश से जीव की अत्यन्त एकता होती है। जैसे घट के फूटे से घटाकाश की महाकाश से एकता होती है। निश्चय करके जानो कि अहंआदिक दृश्य वास्तव में कुछ नहीं विचार किये से नहीं रहता। जैसे बालक की परकाही में पिशाच भासता है सो भ्रान्तिमात्र होता है तैसे ही यह जगत् भ्रान्ति सिद्ध है, अपनी कल्पना से भासता है और दुःखदायक होता है पर विचार किये से नष्ट हो जाता है। हे रामजी! आत्मरूपी चन्द्रमा सदा प्रकाशित है और अहंकाररूपी बादल उसके आगे आता है उससे परमार्थ बुद्धिरूपी कमलिनी विकास को नहीं प्राप्त होती, इससे विवेकरूपी वायु से उसको नष्ट करो। नरक, स्वर्ग, बन्ध, मोक्ष, तृष्णा, ग्रहण, त्याग आदिक सब अहंकार से फुरते हैं। हृदयरूपी आकाश में अहंकाररूपी मेघ जब तक गरजता और वर्षा करता है तब तक तृष्णारूपी कण्टकमञ्जरी बढ़ती जाती है। जब तक अहंकाररूपी बादल आत्मारूपी सूर्य को आक्रमण करता है तब तक जड़ता और अन्धकार है और प्रकाश उदय नहीं होता। अहंकाररूप वृक्ष की अनन्त शाखा फैलती हैं। 'अहं' 'मम' आदिक विस्तार अनेक अर्थों को प्राप्त करता है। जो कुछ संसार में सुख दुःख आदिक प्राप्त होता है वह सब अहंकार से प्राप्त होता है। संसाररूपी चक्र की अहंकार नाभि है जिससे भ्रमता है और 'अहं' 'मम' रूपी बीज