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योगवाशिष्ठ।

तुच्छ है। जिसको देहमात्र में अहंभाव है और जिसके हृदय में तृष्णा उत्पन्न होती है वह पुरुष ऐसा हे जैसा पक्षी तागे से बँधा हो और उसको बालक भी खींच ले। यम भी उसी को वश करते हैं और जो निर्वासनिक पुरुष है उसको कोई नहीं मार सकता—जैसे आकाश में उड़ते पक्षी को कोई नहीं पकड़ सकता। इससे शस्त्रयुद्ध को त्यागो और उनको वासना उपजाओ तब वे वश होंगे। हे इन्द्र! जिसको 'अहं 'ममइदं' आदिक वासना नहीं है और रागद्वेष से जिसका अन्तःकरण क्षोभवान् नहीं होता उसको शस्त्र और अस्त्र से कोई नहीं जीत सकता। इससे दाम, व्याल, कट को और किसी उपाय से न जीत सकोगे। युद्ध के अभ्यास से जब उनको अहङ्कार उपजाओगे तब वह तुम्हारे वश होंगे। हे साधो! ये तो सम्बर दैत्य के रचे हुए यन्त्रपुरुष हैं इनके हृदय में कोई वासना नहीं है, जैसे उसने रचे हैं तैसे ही ये निर्वासनिक पुरुष हैं। जब इनको युद्ध का अभ्यास कराओगे तब इनको अहङ्कार वासना उपज आवेगी। यह तुमको मैंने वश करने की परम युक्ति कही है। जब तक उनके अन्तःकरण में वासना नहीं फुरती तब तक तुमसे वे अजीत हैं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे दामोपाख्याने ब्रह्मवाक्य- वर्णनन्नाम सप्तविंशतितमस्सर्गः॥२७॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जैसे समुद्र में तरङ्ग उपजके और शब्द करके लीन होता है तैसे ही ब्रह्मा कहके जब अन्तर्धान हो गये तबक्षदेवता अपनी वाञ्छित दिशाओं को गये और कई दिन अपने स्थान में रहे। फिर अपने कल्याण के निमित्त उनके नाश करने को उठके युद्ध को चले। प्रथम उन्होंने शंख बजाये जिनसे प्रलयकाल के मेघों के गर्जने के समान शब्द से सब स्थान पूर्ण हो गये। निदान पातालछिद्र से शब्द सुनके देत्य निकले और आकाशमार्ग से देवता आये और युद्ध होने लगा। बरछी, वाण, मुद्गर, मुसल, गदा, चक्र, वज्र, पहाड़, वृक्ष, सर्प,अग्नि आदिक शस्त्र अस्त्र परस्पर चलने लगे। चक्र, मुसल, त्रिशूल आदिक शस्त्र ऐसे चले जैसे गङ्गा का प्रवाह चलता है। देवताओं और दैत्यों के समूह नष्ट होते गये, अंग फट गये, शीश-भुजा कट गये और