पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४६३

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स्थिति प्रकरण।

भी उनको एक बालक भी जीत लेवे, सब आपदाओं के पात्र हैं। यह देहमात्र परिच्छिन्नरूप है, जो पुरुष उसे अपना जानता है और उसमें सत्भावना करता है वह कदाचित् सर्वज्ञ हो तो भी कृपणता को प्राप्त होता है—उसमें उदारता कहाँ है। सबका अपना स्वरूप अनन्त आत्मा अप्रमेय है, जिसको देहादिक में आत्माभिमान हुआ है उसने आपको आप ही दीन किया है। जब तक आत्मतत्त्व से भिन्न त्रिलोकी में कुछ भी सत् भासता है तब तक उपादेय बुद्धि होती है और भावना से बाँधा रहता है। संसार में सत्भावना करनी अनन्त दुःखों का कारण है और संसार में असत्बुद्धि सुख का कारण है। हे साधो! जब तक दाम, व्याल, कट की जगत् के पदार्थों में आस्थाभाव नहीं होती तब तक तुम उनको जैसे मक्खी वायु को नहीं जीत सकती तैसे ही न जीत सकोगे। जिसको देह में अहं भावना और जगत् में सत्बुद्धि होती है वह जीव है और वही दीनता को प्राप्त होता है। वह चाहे कैसा बली हो उसको जीतना सुगम है क्योंकि वह तो तुच्छ कृपण है। जिसके अन्तःकरण में वासना नहीं है और मक्षिकावत् है तो भी सुमेरु की नाई दृढ़ (भारी) हो जाता है। हे देवताओ! जो वासनासंयुक्त है वह परम कृपणता को प्राप्त होता है—वही गुणी गुणों से बँध जाता है। जैसे माला के दाने में छिद्र होता है तो तागे से पिरोया जाता है और जो छिद्र से रहित है वह पिरोया नहीं जाता तैसे ही जिसका हृदय वासना से बिंध गया है उसके हृदय में गुण-अवगुण प्रवेश करते हैं और जो निर्बेध है उसके भीतर प्रवेश नहीं करते। इससे जिस प्रकार 'अहं' 'इदं' आदिक वासना दाम, व्याल, कट के भीतर उपजे वही उपाय करो तब तुम्हारी जय होगी। जिस जिस इष्ट-अनिष्ट के भाव-प्रभाव को जीव प्राप्त होते हैं वही तृष्णारूपी कञ्ज (काँटों) का वृक्ष है, उसी से आपदा को प्राप्त होते हैं। इससे रहित आपदा का अभाव हो जाता है। जो वासनारूपी ताँत से बँधे हुए हैं वह अनेक जन्म दुःख पावेंगे, जो बलवान और सर्वत्र कुल का बड़ा है वह भी जो तृष्णासंयुक्त है तो बँधा है। जैसे सिंह जंजीर से पिंजड़े में बँधा है तो उसका बल और बड़ाई किसी काम नहीं आती तैसे ही जो तृष्णा से बँधा है सो