पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४५४

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योगवाशिष्ठ।

वह उससे स्पर्श नहीं करता—जैसे घट से आकाश स्पर्श नहीं करता और सब क्रिया को करता भोक्ता है,परन्तु किसी में लिप्त नहीं होता सदा एक रस भगवान् आत्मदेव में रहता है। जब वह विमान पर आरूढ़ होके शरीररूपी नगर में विचरता है तब मैत्रीरूपी नेत्रों से सबको देखता है, मैत्रीभाव उसमें सदा रहता है और सत्यता और एकता सदा उसके पास है उससे शोभता है और सदा आनन्दवान् विचरता है। वह जीवों को दुःखरूपी आरे से कटते देखता है जैसे कोई 'पहाड़ पर चढ़के पृथ्वी में लोगों को जलता देखे और आप आनन्दवान् हो, तैसे वह ज्ञानवान् जीवों को दुःखी देखता है और आप आनन्दवान् है। उसकी दृष्टि में तो सदा अद्वैतरूप है और आत्मानन्द की अपेक्षा से अनात्म धर्म को दुःखी देखता है, उसके निश्चय में जगत् जीव कोई नहीं और वह चारों प्रयोजन धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की पूर्णता को प्राप्त होता है। किसी ओर से उसको न्यूनता नहीं, वह सर्व सम्पदा सम्पन्न विराजमान होता है। जैसे पूर्णमासी का चन्द्रमा न्यूनता से रहित विराजता है तैसे ही यद्यपि वह भोगों को सेवता है तो भी उसको वे दुःखदायक नहीं होते। जैसे कालकूट विष को सदाशिव ने पान किया था परन्तु उनको वह दुःखदायक न हुआ, तैसे ही वह भी समर्थ है। जैसे चोर को जानके जब उसे अपने वशवर्ती किया तब मित्रभाव हो जाता है तैसे ही भोग उसको दुःख नहीं देते। जब जीव भोगों को जानता है कि ये कुछ वस्तु नहीं हैं तब वे सुख के कारण होते हैं और जब तक इनको सत्त जानके आसक्त होता है तब तक दुःख के कारण होते हैं। हे रामजी! जैसे यात्रा में अनेक स्त्री पुरुष मिलते हैं और परस्पर इकट्ठे बैठते और चलते फिरते हैं परन्तु आपस में आसक्त नहीं होते—आगे पीछे चले जाते हैं—तैसे ही ज्ञानवान् संसार के पदार्थों में चित्त को नहीं लगाते। जैसे कोई कासिद किसी देश में जाता है और मार्ग में कोई सुन्दर रमणीय स्थान दृष्टि आते और कोई मलीन कष्ट के स्थान भासते हैं परन्तु वह राग-द्वेष किसी में नहीं करता जैसे तैसे देखता चला जाता है, तैसे ही ज्ञानवान् भोगक्रिया में राग-द्वेष से बन्धवान् नहीं होता। उसके सर्वसंशय सम्यकूज्ञान से शान्त हो जाते हैं