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योगवाशिष्ठ।

त्रिलोकी में जो एक है वही मैं एक अविनाशी पुरुष हूँ। जैसे समुद्र में तरङ्ग फुरते हैं और लीन हो जाते हैं तैसे ही मेरे में जगत् फुरते हैं और लीन होते हैं। अथवा प्रथम अहं है, तब दृश्य जगत् होता है, सो न मैं हूँ, न जगत् है, केवल एक आत्मसत्ता है। अहं और मम उसमें कोई नहीं, ऐसे जो देखता है सो यथार्थ देखता है। दृश्य से रहित मैं चैतन्य रूप भाव अपार हूँ और मैं ही जगत्काल को पूर्ण कर रहा हूँ। जो पुरुष ज्ञानवान हैं वे सुख-दुख और भाव अभाव में चलायमान नहीं होते वे केवल ब्रह्मरूप में स्थित हैं और जगत् के भाव प्रभाव से रहित अनाभाव सन्मात्ररूप है। जो हेयोपादेयबुद्धि से रहित आकाशवत् सर्वात्म भाव में स्थित हुआ है उसको जगत् का कोई पदार्थ अपने वश नहीं कर सकता, वह महात्मा पुरुष महेश्वर, तमप्रकाश से रहित, सब कल्पनाओं से मुक्त, सम और स्वच्छरूप है और उदय आस्ते से रहित समवृक्ष है। जो ऐसी परमबोध अनन्त सत्ता में स्थित है उसको मेरा नमस्कार है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे अनुत्तमविश्रामवर्णन-
न्नाम द्वाविंशतितमस्सर्गः॥२२॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जिसने उत्तम पद का आश्रय किया है ऐसे जीवन्मुक्त पुरुष का कुम्हार के चक्र की नाई प्रारब्ध शेष रहा है। वह पुरुष शरीररूपी नगर में राज्य करता है और लेपायमान नहीं होता। उसको भोग और मोक्ष दोनों सिद्ध होते हैं। जैसे इन्द्र का वन सुखरूप है तैसे ही उसका शरीररूपी नगर सुखरूप होता है। शरीर के सुख से वह सुखी नहीं होता और दुःख से दुःखी नहीं होता, अपने स्वरूप में स्थित रहता है। रामजी ने पूछा, हे मुनीश्वर! शरीररूपी नगर कैसा है, उसमें रहके योगिराज क्या करता है और सुख कैसे भोगता है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! ज्ञानी का शरीररूपी नगर स्मणीय होता है और सर्वगुणसंयुक्त ज्ञानवानों को अनन्त आनन्द विलास दिखाता है, जैसे सूर्य प्रकाश को उदय करता है। उस शरीररूपी नगर में गाँठें ईटें हैं, रुधिर और मांस गारा है, अस्थि थम्भ है, किवाड़ पट हैं, रोम वनस्पति हैं, उदर खाई है, छाती चाक है नव द्वार हैं और उनमें नेत्र झरोखे हैं, उन द्वारों