पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४३६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४३०
योगवाशिष्ठ।

तो उनको मनोराज और स्वप्नभ्रम परस्पर अज्ञान होता है तैसे ही यह जगत् है, वास्तव में कुछ नहीं केवल ब्रह्मसत्ता अपने भाप में स्थित है। जो इस जगत् को सत् जानता है पुरुषार्थ नष्ट होता है जो वस्तु भ्रान्ति से भासती है उसका सम्यक ज्ञान से प्रभाव हो जाता है। यह जापत् जगत् भी दीर्घ स्वमा है। चित्तरूपी हस्ती को बन्धन है और चित्तसत्ता से जगत् सत् भासता है और जगत् सत्ता से चित्त है। एक के नाश होने से दोनों का नाश हो जाता है। जो जगत् का सत्भाव नष्ट होता है तब चित्त नहीं रहता और जब चित्त उपशम होता है तब जगत् शान्त होता है। इस प्रकार एक के नाश होने से दोनों का नाश होता है। दोनों का नाश आत्मविचार से होता है। जैसे उज्ज्वल वन पर केशर का रङ्गशीघ्र ही चढ़ जाता है, मलीन वन पर नहीं चढ़ता तैसे ही जिसका निर्मल हृदय होता है उसको विचार उपजता है। हृदय तब निर्मल होता है जब शास्त्र के अनुसार क्रिया करता है। हे रामजी! एक एक जीव के हृदयमें अपनी-अपनी सृष्टि है। पर मलीन चित्त से एक को दूसरा नहीं जानता। जब चित्त शुद्ध होता है तब और की सृष्टि को भी जान लेता है। जैसे शुद्ध धातु परस्पर मिल जाती है। जब दृढ़ अभ्यास होता है तब चिरपर्यन्त सब कुछ भासने लगता है, क्योंकि सबका अधिष्ठाता एक आत्मा है उसमें स्थित होने से सबका ज्ञान होता है। रामजी ने पूछा, हे भगवन शुक्र को प्रतिभामात्र आभास हुआ था उससे देश, काल, क्रिया, द्रव्य उसको दृढ़ होकर कैसे भासे? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! शुक्र ने अपने अनुभवरूपी भण्डार में मन से जगत् देखा। जैसे मोर के पण्डे से अनेक रङ्ग निकलते हैं तैसे ही उसको अपने हृदय में भ्रम भासित हुआ। जैसे वीज से पत्र टास, फल, फल निकलते हैं तेसे ही जीव को अपने अपने अनुभव में संसार खण्ड फुरते हैं यहाँ स्वम दृष्टान्त प्रत्यक्ष है। जैसे एक एक के स्वप्ने में जगत् होता है तेसे ही यह जगत् है। दीर्घ स्वप्न जाग्रत् हो भासता है और जैसा दृढ़ होता तैसा ही भासने लगता है। फिर रामजी ने पूछा; हे भगवन्! सृष्टि के समूह परस्पर मिलते कैसे हैं और नहीं कैसे मिलते? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! मलीन चित्त परस्पर नहीं