पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४३२

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योगवाशिष्ठ।

है और सब गुण इसको छोड़ गये हैं—मानों विरक्त आत्मा हुआ और विषय से मुक्त निर्विकल्प समाधि में स्थित हुआ है। हे शरीर! तू अदृष्टि तन को प्राप्त हुआ है, अब तेरे में कोई क्षोभ नहीं रहा। अब चित्तरूपी वैताल तेरे में शान्त हो गया है और माने जाने से रहित विश्रामवान हुआ है, सब कल्पना तेरी नष्ट हुई हैं और सुख से सोया है। चित्तरूपी मर्कट से रहित शरीररूपी वृक्ष ठहर गया है और अब अनर्थ से रहित पहाड़ की नाई अचल हुआ है। यह देह अब सर्वदुःख से रहित परमानन्द में स्थित है। हे साधो! सब अनर्थों का कारण चित्त है। जब तक चित्त शान्तिमान नहीं होता तब तक जीव को आनन्द नहीं मिलता। जब अमन शक्तिपद को प्राप्त होता है तब महा आधिव्याधि जगत् के दुःखों को तर के विगत परमानन्द को प्राप्त होता है। रामजी ने पूछा, हे भगवन! सर्व धर्मों के वेत्ता भृगु का जोशुक्र पुत्र था उसने तो अनेक शरीरधरेथे और बहुत भोग भोगे थे तो भृगु से जो शरीर उत्पन्न था तिसको देख बहुत शोच क्यों किया और देहों का चिन्तन क्यों न किया? इसका क्या कारण है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! शुक्र की संवेदन कलना जो जीवभाव को प्राप्त हुई थी सो कात्मक होकर भृगु से उपजी। सुनों, आदि परमात्मतत्त्व से चित्तकला फुरकर भृताकाश को प्राप्त हुई और वही वातकला में स्थित होकर पाण, अपान के मार्ग से भृगु के हृदय में प्रवेश कर गई और वीर्य के स्थान को प्राप्त होकर गर्भमार्ग से उत्पन्न हो क्रम करके बड़ी हुई जिससे विद्या और गुणसम्पन्न शुक्र का शरीर हुआ। उस शरीर को जो उसने चिरकाल सेवन किया था इससे उसका शोच किया। यद्यपि वह वीतराग और निरिच्छित था तो भी चिरकाल जो अभ्यास किया था वही फुर आया। हे रामजी! बानी हो अथवा अज्ञानी, व्यवहार दोनों का तुल्य होता है परन्तु शक्ति अशक्ति का भेद है। ज्ञानवान प्रसंशक्त निलेप रहता है और अज्ञानी क्रिया में बन्धवान होता है। ज्ञानवान मोक्षरूप है और अज्ञानी दरिद्र है। जैसे वन में जाल से पक्षी फँसता है तैसे ही अज्ञानी लोकव्यवहार में बन्धवान होता है। व्यवहार जैसे ज्ञानी करता है तैसे ही अज्ञानी करता है। जो वासना