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स्थिति प्रकरण।

कार्य नहीं जो मैंने नहीं किया और ऐसा कोई इष्ट अनिष्ट नरक-स्वर्ग नहीं जो मैंने नहीं देखा। जो कुछ जानने योग्य है वह क्या है? भव मैं आत्मतत्त्व में विश्रामवान हुआ हूँ और संकल्प भ्रम मेरा नष्ट हो गया है। भव आप वहाँ चलिये जहाँ मन्दराचलपर्वत पर मेरा शरीर पड़ा है। हे भगवन्! अब मुझको कुछ इच्छा नहीं है। यद्यपि हेयोपादेय मुझको कुछ नहीं रहा तथापि नीति की रचना देखके कहता हूँ। जो बोधवान है वह प्रकृत आचार में विचरते हैं, आगे जैसी इच्छा हो तैसे कीजिये। बोधवान् उसी आचार को अङ्गीकार करते हैं। इमसे अपने प्रकृत माचार को ग्रहण करके व्यवहार में विचरे।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे भार्गवजन्मान्तवर्णनन्नाम
चतुर्दशस्मर्गः॥१४॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार विचार करके तीनों आकाशमार्ग को चले और शीघ्र ही मेघमण्डल को उल्लंघ के सिद्धों के मार्ग से मन्दराचल पर्वत पर स्वर्ण की कन्दरा में पहुंचे और पूर्व शरीर को देख शुक्र ने कहा, हे तात! मेरे पूर्व शरीर को देखो, जिसे तुमने बहुत पालन किया था। जो शरीर कपूरसुगन्ध से शोभित था और फूलों की शय्या पर शयन करता था, वह अब माटी में लपटा पड़ा है और सूख गया है। जिस शरीर को देखके देवखियाँ मोहित होती थी और कण्ठ में मुक्तमाला ऐसी शोभित थीं मानों तारों की पंक्ति हैं वह शरीर अब पृथ्वी पर गिर पड़ा है। नन्दन वन में इसने अनेक भोग भोगे हैं और आत्मरूप जान के इसको मैं पुष्ट करता था वह अब मुझको भयानक भासता है। जो शरीर देवाङ्गनाओं से मिलता और रागवान होता था वह अब उनकी चिन्ता में सूख गया है। जिन जिन विलासों को चाहता था उनको वह करता था और अब वही चित्त से रहित महाअभागी हुआ धूप से सूख गया है और महाविकराल भयानक सा भासता है। जिसको मैं आत्मरूप जानता था, जिसमें अहंकार से विलास करता था और जिसमें फूल कमल पड़ते तारागण प्रकाशते थे उसमें भव चींटियाँ फिरती हैं। जो शरीर द्रव स्वर्णवत् सुन्दर प्रकाशरूप था वह अब धूप से सूखा भयानक भासता