पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४२४

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योगवाशिष्ठ।

की सत्ता में स्थित है। यह नीति है कि जब तक जीव है तब तक जगत्क्रम है जैसे जब तक अग्नि है तब तक उष्णता भी है। जो कर्तव्य है वह करना है और जो त्यागने योग्य है वह त्यागना है। यह नीति जगत् में स्थित है। जो हेयोपादेय नहीं जानता उसको त्यागना योग्य है। इससे मैंने पुत्र की अकालमृत्यु देखके क्रोध किया था परन्तु विचार करके जब तुमने स्मरण कराया तब मैंने विचार करके देखा कि मेरा पुत्र अनेक भ्रम पाकर भव गङ्गा के तट पर तप करता है। हे भगवन्! तुमने तो कहा कि सब जीवों के दो-दो शरीर हैं—एक मनोमय और दूसरा आधिभौतिक, पर मैं तो यह मानता हूँ कि केवल मन ही एक शरीर है, दूसरा कोई नहीं। मन ही का किया सफल होता है, शरीर का नहीं होता। काल बोले, हे मुनीश्वर! तुमने यथार्थ कहा, शरीर एक मन ही है। जैसे घट को कुलाल रचता है, तैसे ही मन भी देह को रचता है। जो मन शरीर से रहित निराकार होता है तो क्षण में आकार को रच लेता है। जैसे बालक परछाही में वैताल को भ्रम से रचता है। मन में जो फुरनसत्ता है वह स्वमभ्रम दिखाती है और उसमें बड़े आकार और गन्धर्व नगर आसि आते हैं पर वह मन ही की सत्ता है। स्थूल दृष्टि से जीवों को दो शरीर भासते हैं बोधवान् को तीनों जगत् मनरूप भासते हैं और सब मन से रचे हैं। जब भेदवासना होती है तब असवरूप जगत् नाना प्रकार हो भासता है। जैसे असम्यक् दृष्टि से दो चन्द्रमा भासते हैं तैसे ही सम्यकूदर्शी को एक चन्द्रमावत् सब शान्तरूप आत्मा ही भासता है और भेदभावना से घट पट आदिक अनेक पदार्थ भासते हैं कि मैं दुर्बल हूँ व मोटा हूँ, सुखी हूँ व दुःखी हूँ, यह जगत है यह काल है, इत्यादिक सो संसारवासनामात्र है। जब मन शरीर की वासना को त्यागकर परमार्थ की आरे आता है तब भ्रम को नहीं प्राप्त होता। हे मुनिवर! समुद्र से तरंग उठकर ऊर्ध्व को जाता है, जो वह जाने मैं तरंग होता हूँ तो मूर्ख है—यही अज्ञानदृष्टि है। ऊर्ध्व को जावेगा तब जानेगा मैं ऊर्ध्व को गया हूँ, नीचे जावेगा तब जानेगा मैं पाताल को गया हूँ, यह कल्पना ही ज्ञान है, वास्तव नहीं। वास्तव दृष्टि यह है जो