पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४१३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४०७
स्थिति प्रकरण।


रामजी ने पूछा, हे भगवन्! भाप सर्वधर्मों के वेत्ता और पूर्व अपर के ज्ञाता है, मन के फुरने से जगत् केसे होता है और कैसे हुआ है? दृष्टान्त सहित तुझसे कहिये। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जैसे इन्द्र बाह्मण के पुत्रों की दश सृष्टि हुई, और दश ही ब्रह्मा हुए सो मन के फरने से ही उपजकर मन के फुरने में स्थित हुए और जैसे लवण राजा को इन्द्रजाल की माया से चाण्डाल की प्रतिभा दृढ़ होकर भासी तैसे ही यह जगत् मन में स्थित हुआ है। जैसे शुक्र मन के फुरने से चिरकाल स्वर्ग को भोगते रहे और अनेक भ्रम देखे, तेसे ही यह जगत् मन के भ्रम से स्थित हुआ है। रामजी ने पूछा, हे भगवन्! भृगु ऋषीश्वर के पुत्र ने मन के भ्रम से कैसे स्वर्गसुख भोगे, वह कैसे भोग का अधिपति हुआ है और कैसे संसार भ्रम देखा? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! भृगु के पुत्र का वृत्तान्त सुनो। भृगु भौर काल का संवाद मन्दराचल पर्वत में हुआ है। एक समय भृगु मन्दराचल पर्वत में जहाँ कल्पवृक्ष भोर मन्दार आदिक वृक्ष, बहुत सुन्दर स्थान और दिव्यमूर्ति हैं तप करते थे और शुक्रजी उनकी टहल करते थे। जब भृगुजी निर्विकल्प समाधि में स्थित हुए तव निर्मल मूर्ति शुक्र एकान्त जा बैठे। वे कण्ठ में मन्दार और कल्पवृक्षों के फूलों की माला पहिरे हुए विद्या और अविद्या के मध्य में स्थित थे। जैसे त्रिशंकु राजा चाण्डाल था, पर विश्वामित्र के वर को पाके जब स्वर्ग में गया तब देवताओं ने अनादर कर उसे स्वर्ग से गिरा दिया और विश्वामित्र ने देखके कहा कि वहीं खड़ा रह इससे वह भूमि और आकाश के मध्य में स्थित रहा, तैसे ही शुक्र बैठे तो क्या देखा कि एक महासुन्दर अप्सरा उसके ऊर्ध्व स्वर्ग की ओर चली जाती है। जैसे लक्ष्मी की ओर विष्णुजी देखें तैसे ही अप्सरा को शुक्र ने देखा कि महासुन्दरी और अनेक प्रकार के भूषण और वस्त्र पहिने हुए महासुगन्धित है और महासुन्दरमाकाशमार्ग भी उससे सुगन्धित हुआ है। पवन भी उसकी स्पर्श करके सुगन्ध पसारती है और महामद से उसके पूर्ण नेत्र हैं। ऐसी अप्सरा को देखके शुक्र का मन क्षोभायमान हुमा और जैसे पूर्णमासी के चन्द्रमा को देखके क्षीरसमुद्र घोभित होता है तैसे ही उसकी