पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४१

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वैराग्य प्रकरण।

है। हे मुनीश्वर! यह चित्त कभी कभी बड़ा गम्भीर भी हो बैठता है। जैसे चील पक्षी आकाश में ऊँचे फिरता है पर जब पृथ्वी पर माँस देखता है तो वहाँ से पृथ्वी पर आकर माँस लेता है वैसे ही यह चित्त तब तक उदार है जब तक भोग नहीं देखता और जब विषय देखता है तब आसक्त हो विषय में गिर जाता है। यह चित्त वासनारूपी शय्या में सोया रहता है और आत्मपद की भोर नहीं जागता। मैं इस चित्त के जाल में पड़ गया हूँ। वह कैसा जाल है कि उसमें वासनारूपी सूत है, संसार की सत्यतारूपी गाँठ है और भोगरूपी चून है जिसको देखकर मैं फँसा हूँ और कभी पाताल में और कभी आकाश में वासनारूपी रस्सी से बंधा घटीयन्त्र की नाइ फिरता हूँ। इससे हे मुनीश्वर! तुम वही उपाय कहो जिससे चित्तरूपी शत्रु को जीतू। अब मुझको किसी भोग की इच्छा नहीं और जगत् की लक्ष्मी मुझको विरस भासती है। जैसे चन्द्रमा बादल की इच्छा नहीं करता पर चतुरमास में आच्छादित हो जाता है वैसे ही मैं भोग की इच्छा नहीं करता और जगत् की लक्ष्मी भी नहीं चाहता पर मेरा चित्त ही मेरा परमशत्रु है। महापुरुष जब इसके जीतने का यत्न करते हैं तब परमपद पाते हैं, इससे मुझे वही उपाय कहो जिससे मन को जीतूँ जैसे पर्वत पर के वन पर्वत के आश्रय से रहते हैं वैसे ही सब दुःख इसके आश्रय से रहते हैं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यमाकणे चित्तदौरात्मय वर्णनन्नामैकादशस्सर्गः॥११॥

श्रीरामजी बोले कि हे ब्राह्मण! चेतनरूपी आकाश में तृष्णारूपी रात्रि आई है और उसमें काम, क्रोध, लोभ, मोहादिक उल्लू विचरते हैं। जब ज्ञानरूपी सूर्य उदय हो तब तृष्णारूपी रात्रि का अभाव हो जावे और जब रात्रि नष्ट हो तब मोहादिक उलूक भी नष्ट हों। जैसे जब सूर्य उदय होता है तब बरफ उष्ण हो पिघल जाती है वैसे ही सन्तोषरूपी रसको तृष्णारूपी उष्णता पिघला देती है। आत्मपद से शून्य चित्त भयानक वन है, उसमें तृष्णारूपी पिशाचिनी मोहादिक परिवार को अपने साथ लिये फिरती रहती है और प्रसन्न होती है। हे मुनीश्वर! चित्तरूपी पर्वत है उस