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उत्पत्ति प्रकरण।

आत्मसत्ता प्रकाशती है। वह चैतनमात्र सत्ता एक, प्रज, आदिमध्य, अन्त से रहित है, उससे जो स्पन्द फुरा है वह संकल्परूप ब्रह्मा होकर स्थित हुआ है और उसने नाना प्रकार का जगत् रचा है वह शून्यरूप है, मूर्ख बालक को सत्यरूप भासता है। जैसे बालक को परछाही में वैताल भासता है और जीवों को अज्ञान से देहाभिमान होता है तैसे ही असत्यरूप ही सत्यरूप होकर भासता है। जब सम्यक्ज्ञान होता है तब लीन हो जाता है। जैसे समुद्र से तरङ्ग उपजकर समुद्र में लीन होते हैं तैसे ही आत्मा में जगत् उपजकर आत्मा में लीन होता है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे आर्षे महारामायणे सक्षनवतितमस्सर्गः॥१७॥
समाप्तमिदं उत्पत्तिप्रकरणं तृतीयम्॥३॥