पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३९७

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३९१
उत्पत्ति प्रकरण।


वशिष्ठजी बोले, हे रामचन्द्र! जैसे सुवर्ण में भूषण मिथ्यारूप हैं तैसे ही आत्मा में 'अहं त्वं' आदिक अविद्यारूप हैं। लवण की कथा जो तुमने सुनी है उसे अब फिर सुनो। लवण राजा दूसरे दिन विचार करने लगा कि यह मुझको भ्रम सा भासा है परन्तु सत्यरूप होकर देखा है। देश, नगर, मनुष्यादिक पदार्थ मुझको प्रत्यक्ष दृष्टि पाए हैं इससे अब तो वहाँ जाकर देखू कि कैसी बात है। ऐसे विचार से दिग्विजय का मन करके मन्त्री और सेना को साथ लेकर दक्षिण दिशा की ओर चला। देशों को लाँघता लाँघता विन्ध्याचल पर्वत में पहुँचा और पूर्व और दक्षिण के समुद्र के मध्य में मार्ग में भ्रमता भ्रमता किरात देश में जा पहुँचा जो वृत्तांत और देश ग्राम आदिक भ्रम में देखे थे सो प्रत्यक्ष देखे और अति विस्मित हो विचार करने लगा कि हे देव! यह क्या है? जो कुछ मैंने भ्रम से देखा था वह अब भी मुझको प्रत्यक्ष भासता है। यह बड़ा आश्चर्य है। ऐसे विचार के आगे गया तो क्या देखा कि अग्नि से वृक्ष जले हैं और अकाल पड़ा है। अपने सम्बन्धियों की चेष्टा के स्थान देखे और उनकी कथा सुनी। इस प्रकार देखते-देखते आगे गया तो क्या देखा कि चाण्डाल शरीर की सासु बैठी रुदन करती हैं कि हे देव! मेरा पुत्र कहाँ गया। हे पुत्र! तुम कहाँ गये, जिनका चन्द्रमा की नाई मुख था? मेरी मृगनयनी कन्या जीर्ण देह हो गई है-और पोत्र, पौत्रियाँ दुर्भिक्षता से सब जाते रहे। उनके यह खाने के पदार्थ हैं और ये चेष्टा के स्थान हैं। जो रतिका की माला कण्ठ में डाले जीवों के मांस खाते और रुधिर पान करते थे वह कहाँ गये? इसी प्रकार पुत्र, पुत्री, भर्ती, दामाद आदि का नाम लेकर वह रुदन करती थी और लोग जो मा बैठते थे वह भी रुदन करते थे। तब राजा उनका रोना बन्द कराके वृत्तान्त पूछने लगा कि तू किस निमित्त रुदन करती है? किससे तेरा वियोग हुआ है?

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे चाण्डालीशोचनवर्णनन्नाम
पञ्चनवतितमस्सर्गः॥९५॥