पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३८०

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योगवाशिष्ठ।

की नदी को देख के मूर्ख मृग जल पान के निमित्त दौड़ते हैं और कष्टवान होते हैं तैसे ही जगत् के पदार्थों को देखकर अज्ञानी दौड़के यत्न करते हैं और ज्ञानवान तृष्णा के लिये यत्न नहीं करते। ज्यों ज्यों मूर्ख मृग दौड़ते हैं त्यों त्यों कष्ट पाते हैं, शान्ति नहीं पाते, तैसे ही अज्ञानी जगत् के भोगों की तृष्णा करते हैं परन्तु शान्ति नहीं पाते। जैसे तरङ्ग और बुबुदे सुन्दर भासते हैं परन्तु ग्रहण किये से कुछ नहीं निकलते तैसे ही शान्ति का कारण जगत् में सार पदार्थ कोई नहीं निकलता। जड़रूप अविद्या जगताकार हुई है, वह चेतन से भिन्नरूप है परन्तु भिन्न की नाई स्थित हुई है। जैसे मकड़ी अपनी तन्तु फैलाकर फिर अपने में लीन कर लेती है, वह उससे अभिन्नरूप है परन्तु भिन्न की नाई भासती है और जैसे अग्नि से धूप निकलकर बादल का आकार हो रस बँचता है और मेघ होकर वर्षा करता है तैसे ही अविद्या आत्मा से उपजकर और आत्मा की सत्ता पाकर जगत् रचती है, उस जगत् में यह जीव घटीयन्त्र की नाइ भटकता है। जैसे रस्सी से बंधी हुई घड़ियाँ ऊपर नीचे भटकती हैं तैसे ही तीनों गुणों की वासना से बँधा हुआ जीव भटकता है। जैसे कीचड़ से कमल की जड़ उपजती है और उसके भीतर छिद्र होते हैं तैसे ही अविद्यारूपी कीचड़ से यह जगत् उपजा है और विकाररूपी दृश्य इसमें छिपे हैं—सारभूत इसमें कुछ नहीं। जैसे अग्नि घृत और इंधन के संयोग से बढ़ती जाती है तैसे ही अविद्या विषयों की तृष्णा से बढ़ती जाती है, जैसे घृत और इंधनसे रहित अग्नि शान्त हो जाती है तैसे ही तृष्णा से रहित अविद्या शान्त हो जाती है। जब विवेकरूपी जल पड़े और तृष्णारूपी घृत न पड़े तब अग्निरूपी अविद्या नष्ट हो जाती है अन्यथा नहीं नष्ट होती। हे रामजी! यह अविद्या दीपक शिखा के तुल्य है और तृष्णारूपी तेल से अधिक प्रकाशवान होती है। जब तृष्णारूपी तेल से रहित हो और विवेकरूपी वायु चले तब दीपक शिखावत् अविद्या निर्वाण हो जावेगी और न जानियेगा कि कहाँ गई। अविद्या कुहिरे की नाई आवरण करती भासती है परन्तु ग्रहण करिये तो कुछ हाथ नहीं आती। देखनेमात्र स्पष्ट दृष्टि आती है, परन्तु विचार